हिमालयी क्षेत्र में कुदरत कहर बनकर टूट पड़ी है। जम्मू में वैष्णो देवी मंदिर मार्ग में भारी वर्षा के कारण पहाड़ धंसने से 34 लोगों की मौत हो गई। इससे पहले किश्तवाड़ के चोसिटी गांव में 60 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी। इस बार मानसून में कई दिनों से लगातार हो रही बारिश के कारण जम्मू-कश्मीर के उधमपुर, कटरा और उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश के विभिन्न पहाड़ी इलाकों कुल्लू व मंडी में बादल फटने, भूस्खलन और अचानक बाढ़ आने की घटनाएं हुई हैं। इन राज्यों में पुल ढह गए, वाहन बह गए, उड़ानें और ट्रेनें रद्द करनी पड़ीं। वैष्णो देवी की तीर्थयात्रा बाधित हुई है। चिनाब और तवी जैसी नदियां खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं, जिससे बस्तियों को खतरा है। कई इलाकों में बचाव दल संपर्क से कटे हुए गांवों तक पहुंचने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि यह तबाही महज प्राकृतिक आपदा नहीं है। जलवायु परिवर्तन, बेतहाशा शहरीकरण और पर्वतीय क्षेत्रों के कमजोर बुनियादी ढांचे के कारण स्थिति गंभीर हो चुकी है। मानसून में इन तीनों पर्वतीय राज्यों में बहुत से धार्मिक आयोजन होते हैं, जिसमें बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। संयुक्त राष्ट्र द्वारा बाढ़ और सूखे को जलवायु परिवर्तन का एक संकट बताए जाने के साथ, बड़ा सवाल यह है कि क्या हम अपनी आपदाओं को खुद ही न्योत रहे हैं? सरोकार में इस मसले पर एक निगाह।

पश्चिमी हिमालयी राज्यों में बादल फटने और बाढ़ से विनाशकारी हालात

हिमालयी क्षेत्र इस समय बादल फटने, भूस्खलन और बाढ़ की त्रासदी से जूझ रहे हैं। नदियों की तेज धाराएं अपने रास्ते में आने वाली हर चीज को नष्ट कर रही हैं। इस मानसून में स्थिति भयावह हो गई है। बादल फटने से अचानक आई बाढ़ बुनियादी ढांचों और घरों को तहस-नहस कर रही है। धराली में दिल दहला देने वाली तबाही मची है। वैज्ञानिकों ने हिमनदों से उत्पन्न बाढ़ों में वृद्धि का खुलासा किया है। जो बाढ़ हर दशक में एक बार आती थी, अब दो महीने में तीन बार हो गई है।

ढलानों पर हिमनद पिघलने से बार-बार बाढ़ आ रही है। इक्कीसवीं सदी के अंत तक हिमनद झीलों के फटने से आने वाली बाढ़ के तीन गुना होने की आशंका है। अचानक आने वाली बाढ़ जानलेवा बन गई है। पहाड़ों पर बढ़ रहा निर्माण इस स्थिति को और बिगाड़ रहा है। कंक्रीट की इमारतेंजंगलों की जगह ले रही हैं। ये पानी को रोक रही हैं और पहाड़ को असुरक्षित बना रही हैं। भागीरथी नदी पर बना 260.5 मीटर ऊंचा टिहरी बांध, जिसका जलाशय चार घन किलोमीटर है, बादलों के निर्माण को बढ़ाता है।

क्या होता है बादल फटना? क्यों हिमालय में बढ़ रही हैं Cloudburst और तबाही की घटनाएं?

इससे मानसूनी बारिश तेज हो जाती है। अगस्त में लगातार मूसलाधार बारिश से जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में बाढ़ और भूस्खलन का खतरा बढ़ गया है। पश्चिमी हिमालयी राज्यों में ये घटनाएं लगातार बढ़ते तीव्र मौसम की ओर इशारा करती हैं। जम्मू-कश्मीर में मूसलाधार बारिश से अचानक बाढ़ आई और भूस्खलन हुआ। वहीं, उत्तराखंड के धराली क्षेत्र में इसी महीने हिमनद टूटने से अचानक बाढ़ आई थी। हिमाचल के कुल्लू, शिमला, लाहौल-स्पीति में भी भारी बारिश से हालात बिगड़े हुए हैं।

बढ़ते तापमान से हवा में बढ़ी नमी

2010 के बाद से पश्चिमी हिमालयी राज्यों में बादल फटने और अचानक बाढ़ जैसी घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। मौसम वैज्ञानिक मानते हैं कि बढ़ते वैश्विक तापमान की वजह से हवा में नमी अधिक हो रही है, जिससे अचानक और भारी बारिश की संभावना बढ़ जाती है। 2025 के एक अध्ययन में 1970 से 2024 तक की बादल फटने की घटनाओं का विश्लेषण किया गया है। इसमें उत्तराखंड को सबसे अधिक प्रभावित राज्य बताया गया, जबकि हिमाचल और जम्मू-कश्मीर में भी लगातार ऐसी घटनाएं दर्ज हुईं हैं। मानसून में ऐसी जानलेवा मौसमी आपदाओं से नुकसान तेजी से बढ़ रहा है।

पिघलते हिमनद और नया खतरा

2019 में उत्तरकाशी के अराकोट क्षेत्र में बादल फटने से 19 लोगों की मौत हुई और 70 वर्ग किलोमीटर में गांव तबाह हो गए। हिमनदों के लगातार पिघलने और टूटने से ऐसी घटनाएं और बढ़ रही हैं। खीर गंगा जैसी हिमनद नदियां हाल ही में बाढ़ से प्रभावित हुईं। अलकनंदा और भागीरथी नदी घाटियों में 200 से अधिक झूलते हिमनदों की पहचान की गई है। तेजी से पिघलने की वजह से ये अस्थिर हो गए हैं और भारी बारिश या भूकंप के दौरान अचानक टूटकर भीषण बाढ़ ला सकते हैं।

अव्यवस्थित निर्माण से बढ़ रही तबाही

नदियों के किनारे बिना योजना के बसी बस्तियां और कमजोर मकान बाढ़ और भूस्खलन के खतरे को और बढ़ा रहे हैं। घनी आबादी और असुरक्षित इलाकों में निर्माण के कारण हर आपदा में जनहानि और संपत्ति का नुकसान ज्यादा होता जा रहा है। अगर पूरे हिमालयी राज्यों पर नजर डालें, तो हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर जैसे पुराने राज्यों ने विकास के नाम पर ढांचागत बदलाव में कोई कमी नहीं छोड़ी है। यह सब कुछ हिमाचल प्रदेश में ज्यादा रहा, लेकिन इस विकास में हिमालय की संवेदनशीलता की अनदेखी कर दी गई।

यह बात तो माननी ही पड़ेगी कि जिस तरह का विकास मैदानी क्षेत्रों में किया जाता है, वह पहाड़ों के लिए उपयुक्त नहीं है। मकानों, होटलों और रोजगार से जुड़े ढांचागत निर्माण, इन सभी में अलग दृष्टिकोण होना चाहिए था। शिमला, कुल्लू, मनाली में बहुमंजिला इमारतों की भरमार है। इनके निर्माण के समययह नहीं सोचा गया कि ये भविष्य में खतरनाक साबित हो सकती हैं।

हिमाचल पर कहर ज्यादा

पिछले चार-पांच वर्षों से हिमाचल प्रदेश मानसून या बिना मानसून के अचानक आई बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित रहा है। वर्ष 2023 में हिमाचल प्रदेश ने अचानक आई बाढ़ के कारण बड़ा नुकसान उठाया था। पिछले वर्ष भी राज्य के कुछ हिस्सों में यही हालात बने और इस वर्ष भी करीब 10 जिलों को खतरे की स्थिति में माना गया है। पहाड़ों ने पहले कभी पीली और लाल चेतावनी को नहीं देखा था, लेकिन अब वहां लाल चेतावनी की स्थिति आम हो गई है। हिमाचल के कई हिस्सों में इस बार अचानक बाढ़ ने जो तबाही मचाई, वह चिंताजनक है। इसके अलावा, भूस्खलन की भी घटनाएं हुई हैं, जिससे अनेक लोगों की जान चली गई।

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राज्य की तमाम सड़कें पूरी तरह बंद हो गईं, जिनमें सिरमौर, मंडी और कुल्लू जिले सबसे अधिक प्रभावित हुए। बादल फटने से सबसे अधिक तबाही मंडी जिले में हुई है। इस बार बादल फटने की घटनाओं ने 2023 की त्रासदी की याद दिला दी है। उस साल मानसून की आपदा से राज्य में पांच सौ से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी। नुकसान करीब 10,000 करोड़ का आंका गया था।

हिमाचल प्रदेश को वर्तमान वर्षा आपदा में 2,623.36 करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान हुआ है। इसमें राज्य भर में सड़कों और पुलों जैसे सार्वजनिक बुनियादी ढांचे और निजी संपत्ति को काफी नुकसान पहुंचा है। लगातार बारिश के कारण मौजूदा स्थिति पर राज्य सरकार का कहना है कि अब तक 310 लोगों की मौत हो चुकी है, जबकि 38 लापता हैं। सबसे ज्यादा नुकसान सड़कों, पुलों, पानी और बिजली आपूर्ति को हुआ है। मंडी, कुल्लू, चंबा और लाहौल-स्पीति जैसे जिले सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं। पिछले तीन दिनों में मणिमहेश यात्रा पर गए 1,730 पुरुषों, 1,259 महिलाओं और 280 बच्चों सहित 3,269 तीर्थयात्रियों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया है। 24-26 अगस्त के बीच चंबा में भारी बारिश और नुकसान के बाद यात्रा स्थगित कर दी गई है।

उत्तराखंड में तबाही

यही स्थिति उत्तराखंड में भी देखी जा सकती है। हालांकि वहां हिमाचल की तुलना में नुकसान थोड़ा कम रहा है। फिर भी उत्तराखंड के नौ जिलों को पीली चेतावनी में रखा गया है। उत्तराखंड में अपेक्षाकृत सीमित विकास हुआ है और पिछले अनुभवों से कुछ सीखने की कोशिश की गई है, लेकिन बदलते हालात में इसे भी पर्याप्त नहीं माना जा सकता। पिछले एक दशक में हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में कई बार अचानक बाढ़, हल्के भूकंप और अन्य प्राकृतिक आपदाएं देखी गईं हैं। अगर इंटरनेशनल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आइपीसीसी) की रपट के अनुसार सरकारें अब भी सचेत नहीं हुईं, तो भविष्य में जान-माल का इससे ज्यादा नुकसान हो सकता है।

रपट ने किया आगाह

आइपीसीसी पिछले एक दशक से लगातार यही संकेत दे रहा है कि दुनिया में प्रकृति, पर्यावरण और पारिस्थितिकी के व्यवहार अब मानव नियंत्रण से बाहर हो चुके हैं। यह एक सच्चाई भी है, क्योंकि जिस तरह से जलवायु परिवर्तन हो रहा है, लोग यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि वे किस मौसम में हैं। ये अप्रत्याशित परिवर्तन केवल इसलिए हो रहे हैं, क्योंकि मनुष्य ने प्राकृतिक परिस्थितियों को बदल दिया है। इसका मुख्य कारण यह है कि अपनी आवश्यकताओं और विलासिता के कारण यह नहीं सोचा कि प्रकृति इसे किस रूप में लेगी।

आइपीसीसी ने अपनी रपट में यह भी स्पष्ट किया था कि इस बदलती पारिस्थितिकी और पर्यावरण का सबसे गहरा असर हिमालय या फिर ध्रुवीय क्षेत्रों-अंटार्कटिका और आर्कटक पर पड़ेगा। वास्तव में ऐसा हो भी रहा है। इस बदलते मौसम के परिप्रेक्ष्य में सबसे बड़ा नुकसान हिमालय को ही उठाना पड़ रहा है। आज सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि हिमालय के ढांचागत विकास पर तुरंत गंभीर बहस हो, ताकि नीतियों के दायरे में रहते हुए हिमालय और इससे जुड़े राज्यों का न्यायसंगत और टिकाऊ विकास सुनिश्चित किया जा सके।