शरद पवार (Sharad Pawar) की पार्टी NCP में दो फाड़ हो चुकी है। अजित पवार न सिर्फ महाराष्ट्र सरकार में डिप्टी सीएम बन गए, बल्कि एनसीपी पर अपना दावा भी जता रहे हैं। अजित का कहना है कि पार्टी के ज्यादातर विधायक उनके साथ हैं। यह कोई पहला मौका नहीं है जब शरद पवार के खिलाफ इस तरह बगावत हुई है। साल 1990 में जब शरद पवार कांग्रेस में थे और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे, उस वक्त सुशील कुमार शिंदे से लेकर विलासराव देशमुख जैसे नेताओं ने पवार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। बात इतनी बढ़ गई थी कि राजीव गांधी को दखल देना पड़ा था।

किसने की थी पवार के खिलाफ बगावत?

शरद पवार ने राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित अपनी जीवनी ‘अपनी शर्तों पर: जमीनी हकीकत से सत्ता के गलियारों’ तक में 33 साल पहले की उस बगावत पर विस्तार से लिखा है। पवार लिखते हैं कि 1990 में महाराष्ट्र कांग्रेस के कुछ नामी नेताओं ने हमारे खिलाफ विद्रोह का झंडा उठाया। विलासराव देशमुख, रामराव आदिक, सरूपसिंह नाइक, शिवाजी राव देशमुख, जवाहरलाल दरदा और जावेद खान जैसे हमारे मंत्रिमंडल के सहयोगियों सहित महाराष्ट्र कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सुशील कुमार शिंदे, शंकरराव (एस.बी.) चव्हाण, विट्ठल राव गाडगिल और ए.आर. अन्तुले भी इन विद्रोहियों की पंक्ति में खड़े हो गए।

पवार लिखते हैं, ‘विरोधियों ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कि मेरे मुख्यमंत्री बने रहने से राज्य में कांग्रेस को हानि होगी। इसलिए वह मेरे साथ काम नहीं कर सकते, और उन्होंने तत्काल मेरे इस्तीफे की मांग की। इन विद्रोहियों से मुझे थोड़ी-सी भी परेशानी नहीं थी, यह सब दिल्ली में आलाकमान के इशारे पर हो रहा था। विवाद बढ़ा तो तय हुआ कि इसका निपटारा राज्य विधान सभा कांग्रेस कमेटी की मीटिंग में होगा। दिल्ली से जी.के. मूपनार और गुलाम नबी आजाद केन्द्रीय पर्यवेक्षक बनकर आए। उस मीटिंग में अधिकांश विधायकों ने स्पष्ट कर दिया कि बगैर वोटिंग के किसी भी थोपे गए फैसले को नहीं मानेंगे।

विद्रोही नेताओं को पुलिस ने कार तक छोड़ा

शरद पवार लिखते हैं कि उसी दिन शाम को वोटिंग द्वारा मत विभाजन हुआ तो करीब 190 विधायक/एम.एल.सी. हमारे पक्ष में थे, जबकि सिर्फ 20 विधायक नेतृत्व परिवर्तन के पक्ष में थे। विधायकों की उस बैठक का परिणाम जानने के लिए, मीटिंग-स्थल पर भारी संख्या में पार्टी कार्यकर्ता भी उपस्थित थे। जैसे ही निर्णय की घोषणा हुई, वैसे ही कार्यकर्ताओं में खुशी की लहर दौड़ गई, लेकिन विद्रोही गुट के खिलाफ लोगों में गुस्सा भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था। कोई अप्रिय घटना न हो, इसलिए विरोधी नेताओं को पुलिस सुरक्षा में उनकी कारों तक पहुंचाया गया। मूपनार और आजाद ने दिल्ली जाकर हाई कमांड सब बताया। इसके बाद दिल्ली से एम.एल. फोतेदार का फोन आया कि राजीव गांधी मुझसे मिलना चाहते हैं।

राजीव गांधी ने पवार को दिल्ली बुलवाया

पवार लिखते हैं कि मैंने जैसे ही राजीव गांधी के कमरे में प्रवेश किया, राजीव ने व्यंग्यात्मक भाव से पूछा, ‘तो क्या हो रहा है?’ मैंने जवाब दिया- ‘आप हमसे अच्छा जानते हैं…आपके निर्देशानुसार मुम्बई में सभी ने पूरी कुशलता से काम किया, परन्तु दुर्भाग्यवश समर्थन नहीं जुटा सके।’ राजीव के पास इस घटना में खुद के शामिल होने को स्वीकारने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। उन्होंने बड़े कुटिल तरीके से कहा, ‘नहीं, नहीं, वहां कुछ गलत हुआ है। मैंने उनसे वृक्ष को मात्र हिलाने को कहा था, उसे जड़ से उखाडऩे को नहीं।

शरद पवार लिखते हैं कि मैंने तय कर लिया था कि सुशील कुमार शिंदे को किसी भी कीमत पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद पर नहीं रहने दूंगा, लेकिन राजीव इस बात पर सहमत नहीं हुए। क्योंकि शिंदे को हटाने का मतलब हाई कमांड की कमजोरी प्रमाणित होना था। मैंने उनसे सवाल किया, जब पार्टी की राज्य कमेटी का प्रेसीडेंट ही प्रेस कांफ्रेंस कर मुख्यमंत्री को इस्तीफा देने और हटाने की मांग करे तो इसे कैसे बर्दाश्त कर सकता हूं? काफी बहस के के बाद तय हुआ कि शिंदे को मंत्रिमंडल में स्थान दिया जाएगा और शिवाजीराव नीलांगेकर अध्यक्ष बनेंगे।

जो हुआ उसे जाने दो…

इसके बाद बारी आई मंत्रिमंडल पुनर्गठन की। मैंने तब भी राजीव गांधी से कहा, ‘मैं विद्रोही मंत्रियों को मंत्रिमंडल में नहीं रखूंगा। इनको दंडित न करने से राज्य में एक गलत संदेश जाएगा, जो पार्टी हित में नहीं है। राजीव इससे असहमत थे और परेशानी महसूस कर रहे थे। वे किसी भी कीमत पर विद्रोही मंत्रियों को मंत्रिमंडल में शामिल करवाना चाहते थे। काफी देर बहस के बाद मैंने कहा, ‘मैं आपकी परेशानी समझता हूं। उन्होंने (राजीव ने) पूछा, ‘मेरी परेशानी क्या है? मैंने जवाब दिया, ‘आपके कहने पर उन्होंने विद्रोह किया, आप उनको कैसे छोड़ सकते हैं? राजीव गांधी थोड़ी देर चुप हो गए और फिर कहा, ‘ठीक है, जो बीत गया, वह बीत गया। आओ, अब आगे बढ़ें।’

जब माफी मांगने पहुंचे शिंदे

पवार लिखते हैं कि कुछ दिनों बाद सुशील कुमार शिंदे और विलासराव देशमुख मुझसे मिलने आए। वे प्रायश्चित्तपूर्ण मुद्रा में थे और उन्होंने बड़े ही विनम्र भाव से, एक दब्बू व्यक्ति की तरह स्वीकार किया, ‘हम कभी ऐसी घटना नहीं दोहराएंगे। चूंकि विलासराव और मेरे बहुत मधुर संबंध थे। हम लोगों ने एक साथ राजनीति और क्रिकेट में काफी समय साथ-साथ काम किया था इसलिये मैंने तुरंत ही इस घटना को विराम दे दिया।