आजादी के तुरंत बाद पंजाब में पंजाबी सूबा आंदोलन शुरू हुआ। शिरोमणि अकाली दल पंजाबी भाषी राज्य के लिए आंदोलन का नेतृत्व कर रहा था। तारा सिंह इसके मुख्य नेता थे। हालांकि केंद्र सरकार और हिंदूवादी संगठन इस विचार का विरोध कर रहे थे।

Social Scientist पत्रिका के भाग 27 में ‘The Early Vishva Hindu Parish ad: 1964 to 1983’ शीर्षक से मंजरी काटजू का एक विस्तृत लेख छपा है, जिसमें बताया गया है भारतीय जनसंघ (अब भाजपा) और आर्य समाज सहित हिंदू संगठनों ने किस तरह पंजाबी सूबा आंदोलन का विरोध किया था। इन संगठनों ने घोषणा की थी कि केंद्रीय सरकार और अकाली दल के बीच राज्य के विभाजन का कोई भी समझौता पंजाब के हिंदुओं को स्वीकार्य नहीं होगा।

द इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जो लोग मांग के पक्ष में थे वे ‘पंजाबी सूबा अमर रहे’ का नारा लगा रहे थे और जो लोग मांग का विरोध कर रहे थे वे ‘महा-पंजाब’ के पक्ष में नारे लगा रहे थे। 6 अप्रैल, 1955 को अमृतसर डीसी ने लॉ एंड ऑर्डर बनाए रखने के मद्देनजर ‘पंजाबी सूबा अमर रहे’ और ‘महा-पंजाब’ के नारों पर प्रतिबंध लगा दिया।

अकाली दल ने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला माना। प्रतिबंध लगाए जाने के बाद 24 अप्रैल, 1955 को अकाली दल ने अमृतसर में एक बैठक की। उस बैठक में पंजाबी सूबा के नारों पर से प्रतिबंध न हटाए जाने पर 10 मई, 1955 से शांतिपूर्ण अहिंसक विरोध शुरू करने का प्रस्ताव पारित किया गया। उस समय के सबसे बड़े अकाली नेता मास्टर तारा सिंह ने 10 मई, 1955 को अन्य अपने कार्यकर्ताओं के साथ पंजाबी सूबा के नारे लगाकर आदेश का उल्लंघन करते हुए गिरफ्तारी दी।

स्वर्ण मंदिर में गोलीबारी

जुलाई में अहिंसक आंदोलन अपने चरम पर पहुंच गया और बड़ी संख्या में स्वयंसेवक अकाल तख्त पहुंचे। इससे पंजाब सरकार का ध्यान स्वर्ण मंदिर पर केंद्रित हो गया। स्वर्ण मंदिर के आसपास पुलिस की मौजूदगी बढ़ा दी गई। कई हथियारों के लाइसेंस रद्द कर दिए गए। सरकार ने अकाल तख्त से पारंपरिक हथियार छीनने का भी प्रयास किया।

4 जुलाई, 1955 को सुबह 4 बजे पुलिस उप महानिरीक्षक अश्विनी कुमार ने स्वर्ण मंदिर परिसर के अंदर जूते पहनकर पुलिस का नेतृत्व किया। सामुदायिक रसोई पर कब्ज़ा कर लिया गया और लंगर बंद कर दिया गया। पुलिस बर्तन भी उठा ले गई। गुरु रामदास सराय पर भी छापा मारा गया और स्वर्ण मंदिर के मुख्य पुजारियों को गिरफ्तार कर लिया गया।

पुलिस ने एसजीपीसी और अकाली दल के कार्यालय पर भी छापा मारा, जो स्वर्ण मंदिर परिसर का हिस्सा थे। स्वर्ण मंदिर की परिक्रमा में पुलिस ने आंसू गैस के गोले छोड़े। स्वर्ण मंदिर के बाहर फ्लैग मार्च निकाला गया। इस दौरान स्वर्ण मंदिर का मुख्य प्रवेश द्वार बंद कर दिया गया। यह कार्रवाई एक दिन तक चली। पुलिस के मुताबिक कार्रवाई के दौरान 237 लोगों को गिरफ्तार किया गया।

सीएम को मांगनी पड़ी माफी

पुलिस की इस कार्रवाई से आंदोलन को बल मिला। जुलाई के पहले सप्ताह में लगभग 8,000 स्वयंसेवकों को गिरफ्तार किया गया। पंजाबी सूबा नारे पर प्रतिबंध हटाने के लिए आंदोलन में लगभग 12,000 स्वयंसेवकों को गिरफ्तार किया गया। अंततः मुख्यमंत्री भीम सेन सच्चर ने 12 जुलाई, 1955 को पंजाबी सूबा नारे पर प्रतिबंध हटा दिया। हालांकि, मास्टर तारा सिंह को 8 सितंबर, 1955 को रिहा किया गया।

अकालियों ने स्वर्ण मंदिर में 4 जुलाई की पुलिस कार्रवाई के लिए जिम्मेदार व्यक्तियों के खिलाफ जांच और कार्रवाई की भी मांग की। उसी वर्ष सितंबर में चंडीगढ़ में सीएम सच्चर ने पहले एसजीपीसी के प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात की। इसके बाद पुलिस कार्रवाई के लिए माफी मांगने के लिए स्वर्ण मंदिर का दौरा किया।

विश्व हिंदू परिषद की स्थापना

स्वर्ण मंदिर वाली घटना के बाद भी आंदोलन धीरे-धीरे चलता रहा। अंततः एक नवंबर 1966 में मांग मान ली गई और भाषा के आधार पर पंजाब का गठन हुआ। हालांकि इससे कुछ साल पहले 1960-61 में तारा सिंह को ‘पंजाबी सूबा’ के लिए 43 दिन का आमरण अनशन करना पड़ा था। लेकिन केंद्र की नेहरू सरकार नहीं मानी। नेहरू के लिए पंजाबी सूबा की मांग एक ‘विशुद्ध सांप्रदायिक मांग’ से अधिक कुछ नहीं थी।

ख़ैर, मास्टर तारा सिंह की अनशन की समाप्ति के बाद आरएसएस की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने अक्टूबर 1961 में एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें कहा गया कि “अब जब अनशन समाप्त हो गया है और तनाव कम हो गया है तो सभी मुद्दों पर शांत माहौल में विचार करना चाहिए। सभा मास्टर तारा सिंहजी से हार्दिक अपील करती है कि वे हिंदुओं की बुनियादी एकता को समझें और उसके लिए काम करें। सिख संप्रदाय हिंदू समाज का अभिन्न अंग है।”

आरएसएस को पंजाबी भाषी राज्य के लिए आंदोलन के कारण पंजाब में बड़े पैमाने पर सिख-हिंदू टकराव की आशंका थी। आरएसएस ने इस मांग को हिंदू राष्ट्रवाद के लिए हानिकारक माना क्योंकि वह सिखों को हिंदू समाज का अभिन्न अंग मानता था। इसने सिखों को आश्वासन दिया कि उन्हें अपनी पहचान खोने का कोई खतरा नहीं है।

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विश्व हिंदू परिषद के संस्थापक सदस्य (माइक के ठीक सामने मास्टर तारा सिंह बैठे हैं)

1964 में जब विश्व हिंदू परिषद की स्थापना का निर्णय लिया गया तब संदीपनी आश्रम में विचार-विमर्श में भाग लेते हुए तारा सिंह ने घोषणा की कि “धर्म की रक्षा ही हमारा धर्म है। खालसा पंथ का जन्म इसी उद्देश्य से हुआ था। मैंने कभी भी हिंदू धर्म नहीं छोड़ा। गुरु गोबिंद सिंह ने वेदों, पुराणों आदि पर आधारित बहुत सारे गुरुमुखी साहित्यों की रचना की थी।”

उन्होंने आगे कहा, “वास्तव में हिंदू और सिख दो अलग-अलग समुदाय नहीं हैं। वे एक हैं। आपसी विश्वास की कमी एक छोटी सी समस्या रही है। इस स्थिति को ख़त्म किया जाना चाहिए। एक हिंदू पुनरुद्धार आंदोलन बहुत जरूरी है। यदि गुरुजी गोलवलकर (गोलवलकर) इसे अपना लें तो इसे आसानी से किया जा सकता है।” तारा सिंह वीएचपी के संस्थापक सदस्यों में से एक हुए।

तारा सिंह का यह बदला हुआ व्यक्तित्व निस्संदेह आश्चर्यजनक था। हालांकि, VHP के साथ तारा सिंह का संबंध लंबा नहीं रहा क्योंकि 22 नवंबर, 1967 को उनकी मृत्यु हो गई। इस वक्त तक वीएचपी अपनी प्रारंभिक अवस्था में थी।

हिंदू परिवार में पैदा हुए नानक चंद कैसे बने तारा सिंह?

मास्टर तारा सिंह का जन्म रावलपिंडी के एक हिंदू परिवार में हुआ था। तब उनका नानक चंद रखा गया था। कम उम्र में ही उन पर सिख धर्म की कहानियों का ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह सिख हो गए। तारा सिंह को मास्टर की उपाधि कैसे मिली, इसका किस्सा भी दिलचस्प है। तारा सिंह ने भारत-पाकिस्तान बंटवारे का विरोध किया था। जिन्ना ने उनके सामने पाकिस्तान के भीतर सिखों को स्वायत्तता देने का प्रस्ताव रखा लेकिन उन्होंने उसे ठुकरा दिया था। तारा सिंह की कहानी विस्तार से पढ़ने के लिए फोटो पर क्लिक करें:

जानिए, पंजाब असेंबली के बाहर ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ का नारा लगाने और जिन्ना का प्रस्ताव ठुकराने वाले मास्टर तारा सिंह की कहानी