जूलियो रिबेरो

दुनिया को अलविदा कहने से पहले बालासाहेब ठाकरे ने दादर के प्रतिष्ठित शिवाजी पार्क में एक विशाल सभा को संबोधित किया था। उन्होंने समर्थकों की भीड़ से अपील की थी कि उनकी मौत के बाद उनके बेटे उद्धव और पोते आदित्य का ख्याल रखें। यह एक भावनात्मक अपील थी जिसने सभा में आए लोगों को प्रभावित किया।

किसी के मन में कोई संदेह नहीं था कि शिवसेना के सर्वोच्च नेता बाल ठाकरे अपने उत्तराधिकारी के रूप में पहले उद्धव और फिर आदित्य ठाकरे को देखना चाहते हैं। हालांकि उद्धव और बालासाहेब में फर्क है। उद्धव की कार्यशैली अलग है। वह सलाह और किसी प्लान को अंजाम देने के लिए करीबी विश्वासपात्रों की एक मंडली पर निर्भर हैं। लेकिन एक मामले में उद्धव अपने पिता की कार्बन कॉपी साबित हुए। उद्धव ने भी पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि पार्टी की कमान उनके बाद बेटे आदित्य ठाकरे के हाथ में जाएगी। जिन्हें वो निश्चित रूप से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं।

शिवसेना को महाराष्ट्र में सरकार चलाने के सपने को पूरा करने के लिए भाजपा के साथ अपने दशकों पुराने गठबंधन को तोड़ना पड़ा, शरद पवार की राकांपा और पुराने कट्टर प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के साथ हाथ मिलाना पड़ा, तब जाकर उद्धव मुख्यमंत्री बन सकें। मैं पूरे यकीन से नहीं कह सकता कि उद्धव मुख्यमंत्री बनना चाहते थे। उन्हें अपने 28 वर्षीय बेटे को मुख्यमंत्री के रूप में सेटल करने में खुशी होती, लेकिन करीबियों की सलाह और नए साथियों के आग्रह से उन्हें खुद कमान संभालना पड़ा।

आदित्य एक विचारशील युवा हैं। लेकिन वह जल्दी में थे। अगर उन्होंने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत कहीं नीचे से की होती। और अपने तरीके से काम किया होता, तो जल्द पार्टी में शीर्ष पर पहुंच जाते। उनके पास ऐसा करने की योग्यता थी। लेकिन उन्होंने शुरुआत ही पार्टी में नंबर दो के रूप में की और यह अन्य नेताओं को परेशान करने के लिए काफी था। गद्दी की चाह रखने वालों में से एक एकनाथ शिंदे इससे विशेष रूप से आहत हुए। शिंदे ने प्लान बनाया, जो राज्य में भाजपा के रणनीतिकार पूर्व सीएम देवेंद्र फडणवीस के प्लान से मेल खाता था। फडणवीस मानते हैं कि उनका अधिकार छीना गया है। उनकी पार्टी ने शिवसेना के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। गठबंधन जीत भी गयी थी लेकिन उन्हें धोखा दिया गया। फडणवीस तो पहले दिन से बदला लेना चाहते थे लेकिन उनकी शुरुआती कोशिशें नाकाम रहीं।

ईडी कथित तौर पर शिव सैनिकों को लाइन में लगाने का मुख्य हथियार बना। इसके नाम का जिक्र ही महान शिवाजी महाराज के 21वीं सदी के सैनिकों के दिलों और दिमागों में भय पैदा करने के लिए काफी था। ईडी की निगाह से बचने के लिए कई (या शायद अधिकांश) के पास यही विकल्प था कि वो एनसीपी और कांग्रेस के साथ संबंध तोड़कर भाजपा में शामिल हो जाए। राजनीति पंडितों को लगता है कि हालिया विद्रोह का यही असली कारण है।

शिवसेना विधायकों के बगावत का दूसरा कारण बना कैबिनेट का बंटवारा। शिवसेना के विधायकों को लगता है कि कैबिनेट के सभी बड़े और आकर्षक विभाग एनसीपी और कांग्रेस के हिस्से चला गया है और उनके लिए बस टुकड़ा छोड़ दिया गया है। ऐसे विधायकों का कहना है कि उद्धव ने सीएम की कुर्सी पर अपना कब्जा जमाए रखने के लिए यह समझौता किया है। वे यह भी शिकायत करते हैं कि राकांपा और कांग्रेस के विधायकों को उनके विधायक निधि के साथ-साथ सीएम तक पहुंच भी बहुत जल्दी मिल जाती है। सीएम उनके लिए आसानी से उपलब्ध नहीं हैं। शिवसेना विधायक अगले विधानसभा चुनाव के बारे में सोच रहे हैं। विधायकों के विद्रोह के दौरान ये सभी बातें सामने आयीं।

भाजपा पहले महाराष्ट्र में खुद को प्रासंगिक बनाने के लिए और पार्टी को मजबूत करने लिए शिवसेना की पीठ पर सवार हुई। जब उसके विधायकों की संख्या ने शिवसेना को पछाड़ दिया, तो मुख्यमंत्री की कमान भाजपा के पास चली गई। जब फडणवीस मुख्यमंत्री थे तो भ्रष्टाचार कम और प्रशासन बेहतर था। लेकिन राज्य में दबदबा रखने वाले मराठा खुश नहीं थे।

शिवसेना का संस्थापक परिवार यानी ठाकरे परिवार अगड़ी कायस्थ जाति से ताल्लुक रखता है लेकिन शिवसेना के ज्यादातर समर्थक कोंकण क्षेत्र के ओबीसी समुदाय से आते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि बालासाहेब के तरीकों ने राष्ट्रीयकृत बैंकों, रेलवे, एयर इंडिया और हवाई अड्डा प्राधिकरण जैसी केंद्र सरकार की एजेंसियों को अपने कार्यालयों में अधिक महाराष्ट्रियन नियुक्त करने के लिए “मजबूर” किया। यही मुख्य रूप से मुंबई में शिवसेना के उदय का रहस्य था।

शिंदे के विद्रोह के बाद भी शिवसेना के ‘फुट सोलजर’ ठाकरे परिवार के साथ हैं। फिलहाल वे सदमे से जूझ रहे हैं। यह देखा जाना है कि जब ठाकरे शिवसेना का नेतृत्व करना बंद कर देते हैं तो क्या होगा, उस वक्त उनकी प्रतिक्रिया कैसी होगी। ठाकरे के बिना सेना पहले जैसी नहीं रहेगी। पार्टी का विघटन शुरू हो जाएगा। शिवसेना के मुखिया के रूप में एकनाथ शिंदे लंबे समय तक नहीं रह सकते हैं। शिंदे के तरह महत्वाकांक्षा और प्रतिभा वाले अन्य दावेदार कतार में खड़े हैं। उदाहरण के लिए नारायण राणे जो भाजपा में शामिल हो गए हैं, निश्चित रूप से व्यक्तिगत पहचान की आकांक्षा रखेंगे।

शिवसेना के कई कार्यकर्ता भाजपा में शामिल हो सकते हैं, खासकर अगर उन्हें लगता है कि ईडी उनके खिलाफ कार्रवाई करेगी। व्यवहार में समानता से आधार पर कई लोग एनसीपी में शामिल होंगे। किसी पक्ष चुनाव करते वक्त विचारधारा कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाए, इसकी संभावना नहीं है। शिव सैनिक कभी हिंदुत्व की विचारधारा से संचालित नहीं थे, जैसा कि अब एकनाथ शिंदे द्वारा प्रचारित किया जा रहा है। तमाम संभावनाओं पर विचार करते हुए ये बागी अपने स्वार्थ और अच्छा जीवन को ध्यान में रखेंगे। लेकिन शिवसेना, जैसा कि बालासाहेब ने इसकी परिकल्पना की थी – निम्न-मध्यम-वर्गीय महाराष्ट्रीयनों की आकांक्षाओं को मध्य-वर्ग के दर्जे तक पहुंचाने का एक माध्यम रहा है। अगर शिवसेना में ठाकरे परिवार नहीं होगा तो ये मिशन भी नहीं रहेगा।

मुझे आदित्य ठाकरे के लिए दुख है। शायद यही वजह है कि यह विद्रोह हो रहा है। सामान्य सैनिकों पर उनका अच्छा प्रभाव हो सकता था क्योंकि उनकी सोच आधुनिक थी – कुछ पाठक और मैं इससे संबंधित हो सकता हूं। मुझे आदित्य ठाकरे के लिए दुख है। इस विद्रोह का कारण शायद आदित्य हैं। सामान्य शिव सैनिकों पर उनका अच्छा प्रभाव हो सकता था क्योंकि उनकी सोच आधुनिक थी।