लेखक- ऋतांश आज़ाद

आज शहीद ए आज़म भगत सिंह की जयंती है। जन मानस की नज़र में भगत सिंह की छवि एक ऐसे नौजवान की है जो क्रांतिकारी जज़्बे से भरा हुआ था। जिसने कांग्रेस नेता लाला लाजपत राय की अंग्रेज अफसर द्वारा की गई हत्या का बदला लिया। जिसने असेंबली में बम फेंका, जो गांधी जी और कांग्रेस की अहिंसा की नीति के खिलाफ था और जो हँसते हुए फांसी के फंदे पर झूल गया।

सत्ता में आने के बाद से BJP व RSS की ओर से ये कोशिश हुई है कि भगत स‍िंह को अपना हीरो बनाकर पेश किया जाए। प्रधानमंत्री मोदी ने 2015 में उनके शहादत दिवस पर उनके पैतृक गाँव में बड़ा आयोजन किया। उसमें उन्‍होंने पगड़ी भी पहनी। शायद भगत स‍िंह की तरह द‍िखने की कोश‍िश में।

2016 में बीजेपी द्वारा भगत स‍िंह के शहादत दिवस को बड़े स्तर पर मनाने की घोषणा की गई और 2022 में चंडीगढ़ एयरपोर्ट का नाम भगत सिंह के नाम पर रख दिया गया। आज RSS/बीजेपी उन्हें हिंसा के ज़रिए आज़ादी दिलाने वालों के साथ एक सूची में रखकर और कांग्रेस के खिलाफ खड़ा करके, अपने साथ दिखाना चाहती है।

हमें यहाँ दो बातें समझनी होंगी, पहली कि भगत सिंह एक जोशीले नौजवान के अलावा एक गहरी सोच रखने वाले राजनीति चिंतक भी थे। दूसरी बात है कि RSS/बीजेपी का भगत सिंह की विरासत को अपना बताना, बहुत ही हास्यास्पद है। ऐसा इसलिए क्योंकि भगत सिंह उनकी विचारधारा के खिलाफ ही नहीं थे, बल्कि उसे उखाड़ फेंकना चाहते थे। भगत सिंह का चिंतन, उनके लेख इस बात की गवाही देते हैं।

बीजेपी के सत्ता में आने के बाद सांप्रदायिक घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है। बीजेपी/RSS की विचारधारा से जुड़े कई लोग सांप्रदायिक भाषण देते हुए दिखाई दिए हैं। कई मौकों पर केंद्र सरकार भी हिंसक घटनाओं के आरोपियों और नफ़रत फैलाने वालों के साथ खड़ी दिखाई लगती है। न्यूज़ एंकर्स खुले आम मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगलते हैं और उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती। इससे आज अल्पसंख्यक समाज में भय का माहौल है।

इस सांप्रदायिकता की विचारधारा पर भगत सिंह के क्या विचार थे, जानते हैं। 1927 में भगत सिंह ने “साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज” नामक एक लेख लिखा, जो कीर्ति अखबार में छापा था। इस लेख में भगत सिंह लिखते हैं, “भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं।”

वे आगे लिखते हैं, “आज हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नज़र आता है। इन ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि ये धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। …यहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्र कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज्य-स्वराज्य’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं।”

भगत सिंह इसी लेख में आगे लिखते हैं, “दूसरे लोग जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े-बड़े शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और दंगे करवाते हैं।”

वे इन दंगों के समाधान पर लिखते हैं, “लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं।”

भगत सिंह और उनके साथियों द्वारा बनाए गए संगठन नौजवान भारत सभा पर University of New South Wales में साउथ एशियन एण्ड वर्ल्ड हिस्ट्री की अध्यापक कामा मैकलीन ने अपनी किताब A Revolutionary History of Interwar India: Violence, Image, Voice and Text में लिखा है, “इसकी शुरुआत से ही नौजवान भारत सभा प्रत्यक्ष रूप से सांप्रदायिकता विरोधी संगठन था, जो स्पष्ट तौर पर राजनीति में धर्म को मिलाने का विरोध करता था।”

याद दिला दें भगत सिंह ने जिस नारे “इंकलाब ज़िन्दाबाद” को मशहूर किया वह कम्युनिस्ट नेता हसरत मोहानी ने लिखा था। भगत सिंह न सिर्फ धर्म को राजनीति से जोड़ने के विरोधी थे बल्कि वे तो पूरी तरह नास्तिक थे! 27 सितंबर 1931 छपे अपने प्रचलित लेख “मैं नास्तिक क्यों हूँ” में उन्होंने इस बारे में विस्तार से लिखा है।

अब बात करते हैं भगत सिंह के मार्क्सवादी विचारों की। आज बीजेपी सरकार कांग्रेस के द्वारा 1991 में लाई गई निजीकरण और उदारीकरण की नीति पर तेज़ी से चल रही है। उनकी नीतियाँ पूँजीपतियों के पक्ष में और गरीबों के खिलाफ दिखाई देती हैं। ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार, 2021 में भारत के शीर्ष 1% लोगों के पास देश की 40.5% से अधिक संपत्ति है! इससे ज़ाहिर है बीजेपी, कम्युनिस्ट और समाजवादी विचारों के खिलाफ है।

भाजपा सांसद राकेश सिन्हा ने तो 2020 में राज्यसभा में संविधान की प्रस्तावना से ‘समाजवाद’ शब्द को हटाने की मांग करते हुए एक प्रस्ताव तक पेश किया था। इसी तरह प्रधानमंत्री मोदी ने खुद एक 9 फरवरी, 2022 में ANI को दिए इंटरव्यू में कहा, “अब जैसे हम कमुनिस्ट पार्टियों की आलोचना करते हैं, अब सत्ता में नहीं हैं वो, कहीं नज़र नहीं आते, एक केरल में कोने में बैठे हैं, फिर भी वो विचारधारा खतरनाक है।”

जिसे मोदी देश के लिए खतरनाक विचारधारा कह रहे हैं भगत सिंह उसी कम्युनिस्ट विचारधारा को मानते थे! भगत सिंह और उनके साथियों ने रूसी कम्युनिस्ट क्रांतिकारी लेनिन की जयंती पर 21 जनवरी, 1931 को अपने मुकदमे के दौरान कोर्ट में एक टेलीग्राम पढ़ा। इसमें वे लिखते हैं, “लेनिन दिवस पर हम उन सभी को हार्दिक शुभकामनाएं भेजते हैं जो महान लेनिन के विचारों को आगे बढ़ाने के लिए कुछ कर रहे हैं। हम रूस द्वारा किये जा रहे महान प्रयोग की सफलता की कामना करते हैं। हम अंतरराष्ट्रीय मज़दूर आंदोलन के साथ अपनी आवाज मिलाते हैं। सर्वहारा (मज़दूर) वर्ग की जीत होगी, पूंजीवाद की हार होगी, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद!”

इसी तरह उनकी जेल नोटबुक में ज़्यादातर किताबें, जिनका वे जिक्र करते हैं, वो मार्क्स, लेनिन और अन्य कम्युनिस्ट विचारकों की हैं। अपनी फांसी के दिन भी भगत सिंह जर्मन मार्क्सवादी क्लारा ज़ेटकिन द्वारा लेनिन पर लिखी गई किताब “Reminiscences of Lenin” पढ़ रहे थे।

भगत सिंह की विचारधारा 2 फरवरी, 1931 को छपे उनके महत्वपूर्ण दस्तावेज़ “To Young political workers” में साफ दिखाई देती है। इसमें वे क्रांति के मतलब को समझाते हुए लिखते हैं “क्रांति का अर्थ है मौजूदा सामाजिक व्यवस्था को पूरी तरह से उखाड़ फेंकना और उसके स्थान पर समाजवादी व्यवस्था स्थापित करना। उसके लिए सत्ता की प्राप्ति ही हमारा तात्कालिक लक्ष्य है। असल में राज्य, सरकारी मशीनरी शासक वर्ग के हाथों में अपने हितों को आगे बढ़ाने और सुरक्षित रखने का एक हथियार मात्र है। हम इसे छीनना और संभालना चाहते हैं ताकि इसे अपने आदर्श, यानी नए मार्क्सवादी आधार पर सामाजिक परिवर्तन की पूर्ति के लिए उपयोग किया जा सके।”

वे आगे लिखते हैं, “राजनीतिक क्रांति का मतलब ब्रिटिशों के हाथों से राज्य (या अधिक स्पष्ट रूप से, सत्ता) का हस्तांतरण भारतीयों के लिए नहीं है, बल्कि उन भारतीयों के लिए है जो अंतिम लक्ष्य के लिए हमारे साथ हैं।” यहाँ वे मज़दूरों किसानों की बात कर रहे हैं। इसके बाद वे इसी लेख में युवाओं से कम्युनिस्ट पार्टी को खड़ा करके उसके नेतृत्व में पूरी समाज का समाजवादी पुनर्न‍िर्माण करने की बात करते हैं।

अब बात भगत सिंह और उनके संगठन हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) के कांग्रेस और गांधी जी के विरोध की। भगत सिंह कांग्रेस और गांधी जी के अहिंसा के रास्ते से सहमत नहीं थे। लेकिन ज़्यादा बड़ी बात ये है कि उनका मानना था कि कांग्रेस पूँजीपतियों और जमींदारों को साथ लेकर चलती है। इसीलिए उनके आंदोलनों से मिली जीत एक प्रकार का समझौता होगी। जैसा क‍ि ऊपर दर्ज है, भगत सिंह मानते थे कि जब तक पूँजीपतियों का राज खत्म नहीं होता, मज़दूर-किसान को सच्ची आज़ादी नहीं मिलेगी। यहीं उनका कांग्रेस के नेतृत्व से मुख्य मतभेद था। लेकिन To Young political workers में वे आगे ये भी लिखते हैं कि ये सत्य है कि गाँधीवाद का राजनीतिक कार्यक्रम क्रांतिकारी नहीं है, लेकिन उसके तरीके सामूहिक कार्यवाही पर यकीन करते हैं, जिसने जनता की लड़ाई को आगे बढ़ाया है। वे लिखते हैं “एक क्रांतिकारी को अहिंसा के दृष्टिकोण को उसका उचित स्थान देना चाहिए।”

हमें ये भी समझना चाहिए कि उस समय कांग्रेस आज़ादी के आंदोलन की मुख्य पार्टी थी और उसमें वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों ही धाराएं थीं। भगत सिंह जिन समाजवादी विचारों के पक्षधर थे, वैसे लोग भी उस समय कांग्रेस पार्टी में मौजूद थे। 1934 में इन्हीं लोगों ने मिलकर कांग्रेस के भीतर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (CSP) बनाई जिसमें लोहिया, जयप्रकाश नारायण, ई एम एस नंबूदरीपाद, ए के गोपालन जैसे समाजवादी और कम्युनिस्ट नेता थे। 1931 में अपनी शहादत से पहले भगत सिंह ने कांग्रेस के भीतर वामपंथ से प्रभावित नेताओं के पक्ष में कई बार लिखा था।

1928 में कीर्ति अखबार में छपे अपने लेख “नए नेताओं के अलग-अलग विचार” में वे नेहरू और सुभाषचंद्र बोस में से युवाओं को नेहरू का साथ देने को कहते हैं। भगत सिंह लिखते हैं “इस समय पंजाब को मानसिक उत्तेजना की सख्त ज़रूरत है और यह पण्डित जवाहरलाल नेहरू से ही मिल सकती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें उनका अंध भक्त बन जाना चाहिए। लेकिन जहाँ तक विचारों का सम्बन्ध है, वहाँ तक इस समय पंजाबी नौजवानों को उनका साथ देना चाहिए।” याद रहे ये वो दौर था जब नेहरू समाजवाद की वकालत करते थे।

ऊपर दर्ज की गई बातें इस बात की गवाही दे रही हैं कि भगत सिंह की विचारधारा बीजेपी और RSS के मूल विचारों के खिलाफ खड़ी है। इसीलिए भगत सिंह की क्रांतिकारी विरासत को आरएसएस और बीजेपी से जोड़ना उनकी विरासत का अपमान है। आज के दौर में भगत सिंह की राह पर चलने का मतलब पूंजी की लूट, सांप्रदायिकता, जातिवाद और महिलाओं के शोषण के खिलाफ खड़े होना है। एक ऐसे खूबसूरत समाज के सपने के साथ खड़े होना जहां शोषण और भेदभाव की कोई जगह न हो!

(लेखक सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यकर्ता हैं)