लोकसभा चुनाव की सरगर्मी के बीच आइए जानते हैं भारत के पांचवे लोकसभा चुनाव के बारे में। कैसे राजनीतिक उथल-पुथल और पार्टी के विभाजन के बीच, 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी कैसे सत्ता में लौटीं?
चौथी लोकसभा अपने कार्यकाल की समाप्ति से लगभग 15 महीने पहले 27 दिसंबर, 1970 को देर रात भंग कर दी गई थी। भारत के लोगों को संबोधित करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था, “किसी राष्ट्र में एक समय आता है जब सरकार को गंभीर समस्याओं को हल करने के लिए कठिनाइयों को कम करने के लिए एक असामान्य कदम उठाना पड़ता है।” जिसके बाद 1 से 10 मार्च 1971 के बीच मतदान हुए।
कांग्रेस पार्टी में फूट
जब जवाहरलाल नेहरू जीवित थे तब भी कई कांग्रेस नेता कामराज योजना से नाखुश थे, जिसके अनुसार उन्हें सरकारी पद छोड़ना पड़ता और पार्टी के पुनर्निर्माण के लिए प्रतिबद्ध होना था। जनवरी 1966 में लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद और 1967 के चुनाव के बाद भी इस पद पर बने रहने से उनकी शिकायतें और भी गहरी हो गईं। 3 मई, 1969 को राष्ट्रपति ज़ाकिर हुसैन के निधन के बाद टकराव की परिस्थितियां बन गईं।
कौन बनेगा अगला राष्ट्रपति?
कांग्रेस के पुराने नेताओं ने हुसैन के उत्तराधिकारी के लिए आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री नीलम संजीव रेड्डी का नाम प्रस्तावित किया जबकि इंदिरा ने अनुसूचित जाति के दिग्गज नेता बाबू जगजीवन राम के लिए दबाव डाला। उपराष्ट्रपति वी वी गिरि भी मैदान में थे। कामराज, पार्टी अध्यक्ष एस निजलिंगप्पा और अतुल्य घोष के नेतृत्व वाले कांग्रेस ‘सिंडिकेट’ के समर्थन के साथ, नीलम संजीव रेड्डी ने समर्थन के लिए स्वतंत्र पार्टी और भारतीय जनसंघ (बीजेएस) जैसे विपक्षी दलों से संपर्क किया।
जिसके बाद इंदिरा गांधी ने वीवी गिरि को सपोर्ट करने का फैसला किया। जुलाई 1969 में उन्होंने उप प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से उनका वित्त विभाग बिना किसी परामर्श के छीन लिया, जिससे अपमानित महसूस करते हुए देसाई ने इस्तीफा दे दिया। सीपीआई से समर्थन की मांग करते हुए इंदिरा ने 19 जुलाई को बैंकों के राष्ट्रीयकरण की घोषणा की।

कांग्रेस का विभाजन
16 अगस्त 1969 को हुए राष्ट्रपति चुनाव में इंदिरा के समर्थन से निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ने वाले वीवी गिरि ने आधिकारिक कांग्रेस उम्मीदवार रेड्डी को हराया। जिसके बाद पुराने समर्थकों ने प्रधानमंत्री इंदिरा को पार्टी से निष्कासित करके जवाब दिया और 12 नवंबर 1969 को कांग्रेस औपचारिक रूप से सिंडिकेट के नेतृत्व वाले कांग्रेस (O) और इंदिरा के कांग्रेस (R) गुट में विभाजित हो गई। निजलिंगप्पा कांग्रेस (ओ) में शामिल हो गए, और यह गुट 1977 तक जारी रहा, जिसके बाद इसका जनता पार्टी में विलय हो गया। जगजीवन राम को कांग्रेस (आर) का अध्यक्ष नियुक्त किया गया।
जब इंदिरा गांधी ने विभाजन के बाद अपने गुट को ‘असली’ कांग्रेस के रूप में स्थापित करने के लिए संघर्ष किया तो उनकी अल्पमत सरकार को 28 जुलाई, 1970 को अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा। हालांकि, वह सीपीआई और कुछ अन्य समूह के समर्थन से बच गईं। बैंकों के राष्ट्रीयकरण और सीपीआई के साथ लगभग 225 कांग्रेस सांसदों के साथ जनता को सफलतापूर्वक अपने पक्ष में करने के बाद इंदिरा गांधी ने समय से पहले चुनाव कराने का फैसला किया। उन्होंने “गरीबी हटाओ” का नारा दिया जो काफी लोकप्रिय हुआ।
चुनाव चिन्ह का आवंटन
जब कांग्रेस के दो गुटों ने पार्टी के मूल प्रतीक, ‘दो बैल’ को बनाए रखने के लिए लड़ाई लड़ी तब राष्ट्रपति गिरि ने लोकसभा भंग कर दी। 11 जनवरी, 1971 को, भारत के चुनाव आयोग (ECI) ने फैसला किया कि इंदिरा गांधी द्वारा समर्थित जगजीवन राम के नेतृत्व वाली कांग्रेस ही ‘असली’ कांग्रेस थी। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने आदेश पर रोक लगा दी और फैसला सुनाया कि किसी भी समूह को अविभाजित पार्टी का प्रतीक नहीं मिलेगा। 25 जनवरी 1971 को, ईसीआई ने कांग्रेस (ओ) को ‘महिला द्वारा चलाया जा रहा चरखा’ आवंटित किया और कांग्रेस (आर) को ‘बछड़ा और गाय’ चुनाव चिन्ह दिया।

भारी हिंसा के बीच इंदिरा की वापसी
पांचवां लोकसभा चुनाव मुख्य चुनाव आयुक्त एसपी सेन वर्मा द्वारा आयोजित किया गया था, जिन्होंने अक्टूबर 1967 में केवीके सुंदरम की जगह ली थी। ईसीआई के अनुसार, देश भर में 3.42 लाख मतदान केंद्रों पर 518 सीटों के लिए 27.31 करोड़ लोगों ने मतदान किया। 1967 के बाद की राजनीतिक उथल-पुथल ने चुनाव कार्यक्रम को बाधित कर दिया था और केवल तीन राज्यों – उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव हुए थे।
चुनाव आयोग ने चुनाव पर अपनी रिपोर्ट में कहा था, “इस दौरान पश्चिम बंगाल में भयानक हिंसा हुई और कई उम्मीदवारों की हत्याएं हुईं, राज्य में पांच साल में चार विधानसभा चुनाव हुए – 1967, 1969, 1971 और 1972। बिहार में, हथियारों से लैस गुंडों और बदमाशों की भीड़ ने बूथ पर कब्जा कर लिया था।”
10 मार्च, 1971 को पश्चिम बंगाल को छोड़कर हर जगह गिनती शुरू हुई और 15 मार्च तक नतीजे घोषित कर दिए गए। इंदिरा ने अपने ‘गरीबी हटाओ’ वादे पर अमल करते हुए 352 सीटों के साथ दो-तिहाई बहुमत हासिल किया। सीपीआई (एम) ने 25, सीपीआई और डीएमके ने 23-23 सीटें जीतीं और बीजेएस ने 22 सीटें जीतीं।

इन बड़े नेताओं को करना पड़ा हार का सामना
चौधरी चरण सिंह जिन्होंने 1967 में भारतीय क्रांति दल बनाने के लिए कांग्रेस छोड़ दी थी, मुजफ्फरनगर में हार गए। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गुरु महंत अवैद्यनाथ गोरखपुर से हारे थे और जेबी कृपलानी की पत्नी सुचेता कृपलानी फैजाबाद (अब अयोध्या) से कांग्रेस (ओ) उम्मीदवार के रूप में हार गईं थीं।
इन्हें मिला चुनाव में जीत का ताज
चुनाव जीतने वाले प्रमुख लोगों में बीजेएस उम्मीदवार विजया राजे सिंधिया (भिंड) और उनके बेटे माधवराव सिंधिया (गुना) और अटल बिहारी वाजपेयी (ग्वालियर) शामिल थे। स्वर्ण सिंह जुलुंदूर (अब शहीद भगत सिंह नगर) से, करण सिंह उधमपुर से, सीपीआई (एम) के एके गोपालन पालघाट से, पीएसपी के मधु दंडवते राजापुर से, वीपी सिंह (जो बाद में प्रधानमंत्री बने) फूलपुर से जीते थे। एच एन बहुगुणा (जो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने) इलाहाबाद से जीते थे। इंदिरा गांधी ने खुद राज नारायण को 1 लाख से ज्यादा वोटों के बड़े अंतर से हराया था।
1975 का आपातकाल
18 मार्च 1971 को इंदिरा गांधी ने एक बार फिर प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। उसी साल दिसंबर में भारतीय सेना ने पाकिस्तान को युद्ध में करारी शिकस्त दी, जिसके कारण बांग्लादेश का जन्म हुआ। उस बीच इंदिरा की लोकप्रियता चरम पर थी। प्रधानमंत्री को पहला बड़ा झटका 12 जून, 1975 को लगा जब इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उन्हें चुनावी कदाचार और राज्य मशीनरी के दुरुपयोग का दोषी पाया और रायबरेली से उनके चुनाव को अवैध घोषित कर दिया। दो हफ्ते से भी कम समय के बाद 25 जून, 1975 को इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की, जिसने भारत में राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया।