स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है- का नारा देने वाले स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक पर अक्सर ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ और ‘मुस्लिम विरोधी’ होने का आरोप लगता है। इस आलोचना के समर्थन में तिलक के कुछ लेखों और गतिविधियों का उदाहरण दिया जाता है। तिलक पर मुहर्रम के विरोध में गणेश उत्सव को लोकप्रिय बनाकर राष्ट्रीय आंदोलन में ‘हिंदू पुनरुत्थानवाद’ की शुरुआत करने का भी आरोप लगता है।

हालांकि तिलक समर्थक इन आरोपों का खंडन करते हैं। कुछ जानकार तो तिलक और मुस्लिम लीग के बीच अच्छा संबंध भी बताते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सहयोगी रहे, पूर्व भाजपा व‍िचारक सुधींद्र कुलकर्णी ने पाकिस्तानी मीडिया DAWN के लिए लिखे एक आर्टिकल में बाल गंगाधर तिलक और जिन्ना की दोस्ती का जिक्र किया है।

कुलकर्णी लिखते हैं, “यह सच है कि अपने शुरुआती लेखों में तिलक ने मुस्लिम आक्रमणकारियों की कट्टरता की आलोचना की थी। लेकिन स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय मुसलमानों के बारे में तिलक के विचार बदल गए और उन्हें विश्वास हो गया कि भारत की मुक्ति और भविष्य की प्रगति के लिए हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच एकता नितांत आवश्यक है।”

बाल गंगाधर तिलक मशहूर मराठी अखबार ‘केसरी’ के संस्थापक थे। उन्होंने केसरी में लिखा था, “जब हिंदू और मुस्लिम एक साथ एक मंच से स्वराज्य की मांग करेंगे, तो अंग्रेजों को अहसास होगा कि उनके दिन अब गिनती के रह गए हैं।”

तिलक और मुसलमान

मुसलमानों के बीच तिलक की स्वीकार्यता का उदाहरण देते हुए कुलकर्णी लिखते हैं, “कुछ सबूत हैं, जिससे यह पता चलता है कि उस समय के मुसलमानों ने तिलक को एक भारतीय राष्ट्रवादी के रूप में देखा था, न कि हिंदू राष्ट्रवादी के रूप में। साल 1897 में जब ब्रिटिश सरकार ने तिलक को राजद्रोह के मामले में गिरफ्तार कर जेल में डाला, तब उन्हें बचाने के लिए कलकत्ता से 16,000 रुपये जुटाए गए थे। इसमें से 7,000 रुपये एक मुस्लिम स्वामित्व वाली बिजनेस फर्म हिरजी अहमद और हाजी हुसैन हाजी अब्देल द्वारा दान किए गए थे। दान के कवरिंग लेटर में हाजी अब्देल ने लिखा था कि जिस क्षण सरकार ने तिलक को गिरफ्तार किया, वह हिंदू समुदाय के नेता नहीं रहे। वह अब सभी जातियों, पंथों और धर्मों से ऊपर हैं। उन पर मुकदमा, हिंदू और मुसलमानों की साझी मातृभूमि की लड़ाई के लिए चलाया जा रहा है।”

भारतीय स्वतंत्रता सेनानी शौकत अली और उनके भाई मोहम्मद अली जौहर दोनों तिलक का बहुत सम्मान करते थे। कुलकर्णी के मुताबिक, शौकत अली ने यहां तक कहा था: मैं सौवीं बार फिर से उल्लेख करना चाहूंगा कि मोहम्मद अली और मैं दोनों लोकमान्य तिलक की राजनीतिक पार्टी से थे और अब भी हैं।

इसके अलावा अली बंधुओं की मां आबादी बानो बेगम, जो ‘बी अम्मा’ के नाम से मशहूर थीं, वह भी तिलक समर्थक थीं। उन्होंने सभाओं को संबोधित करते हुए लोगों से तिलक स्वराज कोष में दान देने का आग्रह किया था। तिलक स्वराज कोष, गांधी ने तिलक की स्मृति में बनाया था।

तिलक के समय को हिंदू-मुस्लिम भाईचारे का अच्छे दिन बताते हुए कुलकर्णी लिखते हैं, “बंबई में उनके अंतिम संस्कार के कुछ दिनों बाद तिलक की राख को एक विशेष ट्रेन से उनके पैतृक शहर पुणे लाया गया था। वहां से उनके अस्थि कलश के साथ एक जुलूस न‍िकाला गया। जुलूस, रास्ते में एक मस्जिद के पास रुका और लोगों ने “हिंदू-मुस्लिम एकता की जय” के नारे के साथ अपने प्रिय नेता का सम्मान किया।”

जिन्ना और तिलक

इंडियन स्कॉलर, लॉयर और राजनीतिक टिप्पणीकार ए जी नूरानी ने तिलक और जिन्ना को केंद्र में रखकर एक किताब लिखी है। किताब का नाम है- “जिन्ना एंड तिलक-कॉमरेड्स इन द फ्रीडम स्ट्रगल”

इस किताब में नूरानी ने जिन्ना के करीबी हिंदू दोस्त कांजी द्वारकादास को उद्धृत किया है: “उस समय बॉम्बे में राजनीति के दो प्रमुख केंद्र हुआ करते थे। पहला सरदार गृह (एक मामूली गेस्ट हाउस) और दूसरा बॉम्बे हाईकोर्ट का एक कक्ष। सरदार गृह के एक कमरे में तिलक रहा करते थे। उच्च न्यायालय के एक कक्ष में जिन्ना बैठा करते थे। सभी राजनीतिक संगठन, परामर्श और निर्णय के लिए इन दो जगहों पर जाते थे।”

तिलक ने मुसलमानों को इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में एक तिहाई सीटें देने के समझौते का समर्थन किया था। यह समझौता कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच हुआ था। समझौते का समर्थन करने की वजह से तिलक को मदन मोहन मालवीय, बी एस मुंजे और तेज बहादुर सप्रू जैसे कांग्रेस के प्रभावशाली हिंदू नेताओं के विरोध का सामना करना पड़ा था। इन नेताओं ने तिलक का यह कहते हुए विरोध किया था कि उन्होंने अलग निर्वाचन क्षेत्रों की ‘राष्ट्र-विरोधी और लोकतंत्र-विरोधी’ प्रणाली को स्वीकार करके मुसलमानों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है। हालांकि फिर भी तिलक अपनी बात पर अड़े रहे और हिंदू-मुस्लिम समझौते के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया।

एक खुले सत्र में 2,000 से अधिक प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए तिलक ने कहा था: विधान परिषद में हमारे मुसलमान भाइयों को जो रियायत दी गई है, वह वास्तव में बहुत अधिक नहीं है। मुसलमानों को जो रियायत दी गई है, उसके अनुपात में उनका उत्साह और समर्थन निश्चित रूप से अधिक है। मैं श्रोताओं से आग्रह करता हूं कि वे कांग्रेस द्वारा अपनाए गए संकल्प को हकीकत बनाएं।

अपने रुख को और स्पष्ट करते हुए तिलक ने टिप्पणी की: “एक हिंदू के रूप में मुझे यह रियायत देने में कोई आपत्ति नहीं है। हम मुसलमानों की सहायता के बिना अपनी खराब वर्तमान स्थिति को नहीं बदल सकते।”

जिन्ना ने तिलक के विचारों और भावनाओं को दोहराया था। लखनऊ में मुस्लिम लीग की एक सभा में भाषण देते हुए उन्होंने खुद को “एक कट्टर कांग्रेसी” बताया था, जिसे “सांप्रदायिक बहस से कोई लगाव नहीं था”।

नवंबर 1917 में तिलक की उपस्थिति में बॉम्बे के शांताराम चॉल में एक सार्वजनिक बैठक को संबोधित करते हुए, जिन्ना ने कहा: “मुसलमानों को मेरा संदेश अपने हिंदू भाइयों के साथ हाथ मिलाना है। हिंदुओं के लिए मेरा संदेश है कि अपने पिछड़े भाई को ऊपर उठाएं।”