1960 के दशक में पहली बार उत्तर प्रदेश की राजनीति में पिछड़ी जातियों के महत्व को समझा जाने लगा। पिछले 30 साल की राजनीति की बात करें तो उत्तर प्रदेश में भाजपा ने समाजवादी पार्टी के वोट बैंक माने जाने वाले मुस्लिम यादवों से हटकर एक मजबूत गैर पिछड़ी जातियों के वोट बैंक को अपने पक्ष में खड़ा किया है, जिनके बल पर पार्टी लगातार पिछले तीन बार से उत्तर प्रदेश में चुनाव जीत रही है। 2022 में कुछ बड़े पिछड़ा वर्ग के नेता भाजपा से अलग हुए हैं। अब यह देखना होगा कि 10 मार्च को उत्तर प्रदेश में ओबीसी किस पार्टी को सरकार में बैठता है।

जातिगत आंकड़े और आरक्षण: राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने उत्तर प्रदेश से 27 फीसदी आरक्षण के लिए केंद्रीय सूची में यूपी से 76 जातियों को सूचीबद्ध किया है। 1980 में सरकार को पेश की गई मंडल कमीशन की रिपोर्ट (जिसे 1994 में लागू किया गया था) के मुताबिक देश में पिछड़ा वर्ग के लोगों की संख्या 52 फीसदी है। नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन (NSSO) की अक्टूबर 2006 की रिपोर्ट के मुताबिक देश में इनकी संख्या करीब 41 फीसदी है।

2001 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह के द्वारा एक सामाजिक समिति का गठन किया था। जिसने उत्तर प्रदेश में पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के 43.13 फीसदी (52.05 फीसदी) ग्रामीण इलाकों में होने का अनुमान लगाया था। समिति की रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश में यादव 19.4 फीसदी, कुर्मी 7.45 फीसदी, कुशवाहा -शाक्य-मौर्य-सैनी-माली 6.69 फीसदी, लोध 4.9 फीसदी, जाट 3.6 फीसदी, निषाद 4.33, पाल – बघेल 4.43 फीसदी कहार- कश्यप 3.31 फीसदी और राजभर की संख्या 2.44 फीसदी है। यहां यह जानना जरूरी है कि 1931 के बाद उत्तर प्रदेश में कोई भी जातिगत जनगणना नहीं हुई है यह सब केवल अनुमान है।

1977 में राम नरेश यादव की जनता पार्टी की सरकार ने उत्तर प्रदेश में ओबीसी के लिए सरकारी नौकरियों में 15 फीसदी आरक्षण दिया था। 1994 में सपा और बसपा सरकार में मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने जिसे बढ़ाकर 27 फीसदी कर दिया था।

चरण सिंह से मुलायम सिंह तक: 1967 के विधानसभा चुनावों के दौरान उत्तर प्रदेश में ओबीसी वोटर पहली बार कांग्रेस से हटकर अन्य पार्टियों की तरफ जाना शुरू किया, जिसका परिणाम हुआ भारतीय जनसंघ जो आगे चलकर भारतीय जनता पार्टी बना उसे 98 सीटों पर जीत मिली। ओबीसी के आगे चलकर बड़े नेता बने मुलायम सिंह यादव और कल्याण सिंह का प्रवेश विधानसभा में इसी चुनाव के दौरान हुआ था। चौधरी चरण सिंह भी पहली बार कांग्रेस से अलग होकर मुख्यमंत्री इसी चुनाव में बने थे।

पूर्वी यूपी में जहां जाट वोटर्स की तादात ना के बराबर है चौधरी चरण सिंह को यादव और कुर्मी जैसी ओबीसी जातियों से समर्थन मिलता रहा। बड़ी संख्या में भारतीय जनसंघ के एमएलए इन्हीं जातियों से आते थें। समय के साथ-साथ इन जातियों का झुकाव चौधरी चरण सिंह की ओर बना रहा और 1987 को देहांत तक चौधरी चरण सिंह प्रदेश में सभी पिछड़ी जातियों के बड़े नेता के रूप में जाने जाते थे।

1980 में कांग्रेस से अलग हुए बीपी सिंह को अलग-अलग बड़े पिछड़ी जाति के नेता जैसे उत्तर प्रदेश से मुलायम सिंह यादव, बिहार से लालू प्रसाद यादव और मध्यप्रदेश से शरद यादव का समर्थन मिला। इस दौरान उत्तर प्रदेश हरियाणा राजस्थान के जाटों ने भी उनका पुरजोर तरीके से समर्थन किया। 1990 में लाल किले से स्वतंत्रता दिवस भाषण में मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने के बाद पिछड़ा वर्ग ने और अधिक उनका समर्थन किया।

1989 में मुलायम सिंह यादव पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। इस दौरान मुलायम सिंह यादव को बड़ी संख्या में पिछड़ी जातियों और मुसलमानों ने समर्थन दिया। बीजेपी इस दौरान उत्तर प्रदेश में हिंदुत्व की राह पर आगे निकल चुकी थी।

बीजेपी की कल्याण और राजनाथ सिंह की रणनीति: मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद भाजपा ने 1990 में कल्याण सिंह को पिछड़ा वर्ग का चेहरा बनाया, जिसके बाद मुलायम सिंह यादव की तरफ गैर यादव पिछड़ा वर्ग का झुकाव कम होता चला गया। कल्याण सिंह ने एक मजे हुए राजनीतिक खिलाड़ी की तरह गैर यादव पिछड़ा वर्ग जातियों को भाजपा के समर्थन में एकत्रित किया और 1991 के विधानसभा चुनावों के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने।

उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के बाद राम प्रकाश गुप्ता (नवंबर 1999 -अक्टूबर 2000) ने जाटों को पिछड़ा वर्ग में शामिल कराया, जिसके बाद राजनाथ सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और उन्होंने मुलायम सिंह यादव और मायावती की राजनीति को कमजोर करने के लिए ‘आरक्षण में आरक्षण का’ दांव चला।

राजनाथ सिंह ने मुख्यमंत्री रहते हुए जून 2001 में सामाजिक न्याय समिति बनाई। हुकुम सिंह की अध्यक्षता में बनी समिति की रिपोर्ट में सिफारिश की गई कि दलितों के लिए तय 21 फीसदी आरक्षण में से 11 फीसदी आरक्षण गैर जाटव दलितों को मिलना चाहिए। इसके साथ ही समिति में सिफारिश की गई कि यादवों के लिए 5 फीसदी आरक्षण को रखना चाहिए जबकि बाकी की 70 अन्य पिछड़ी जातियों के लिए 22 फीसदी आरक्षण दिया जाना चाहिए।

सामाजिक न्याय समिति कि इन सिफारिशों को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा खारिज कर दिया गया। जिसके बाद 2002 विधानसभा चुनाव में भाजपा की सीटें उत्तर प्रदेश में घटकर केवल 88 रह गई।

2002 के बाद पिछड़ा वर्ग की राजनीति: 2002 के बाद पिछड़ा वर्ग की राजनीति में उत्तर प्रदेश में बड़े बदलाव देखने को मिले। पूर्वांचल में कुर्मीयों के बड़े नेता सोनेलाल पटेल ने बसपा से अलग होकर अपना दल बनाया। 2002 के चुनावों में अपना दल ने उत्तर प्रदेश में 351 उम्मीदवार उतारे जिसमें से केवल तीन ही विधानसभा तक पहुंच सके।

इसी तरह अक्टूबर 2002 में बसपा से अलग होकर ओमप्रकाश राजभर ने सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी) बनाई। 2016 में निषादों के बड़े नेता संजय निषाद ने निर्बल इंडिया शोषित हमारा आम दल (निषाद पार्टी) बनाई जिसका मुख्य वोट बैंक निषाद समाज था।

अपना दल के संस्थापक सोनेलाल की मृत्यु के बाद उनकी बेटियों अनुप्रिया पटेल और पल्लवी पटेल ने पार्टी की कमान संभाली, जिसके बाद दोनों में आपस में झगड़ा हो गया। 2022 के विधानसभा चुनावों में अनुप्रिया पटेल की पार्टी अपना दल (सोनेलाल) ने भाजपा के साथ और उनकी बहन पल्लवी पटेल की पार्टी अपना दल (कमेरावादी) ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया है।

2014 बाद पिछड़ा वर्ग मोदी योगी के साथ: उत्तर प्रदेश में पिछड़ा वर्ग किसी भी पार्टी को सत्ता में बैठाने में बड़ी भूमिका निभाता है। 2014 के बाद से ही भाजपा कल्याण सिंह और अपने गठबंधन सहयोगियों के साथ पिछड़ा वर्ग के समीकरण को साधने में सफल रही है। 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 73 सीटों पर जीत हासिल हुई थी।

2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने पिछड़ा वर्ग के केशव प्रसाद मौर्य को भाजपा का अध्यक्ष बनाया, जिसके बाद पार्टी को 403 में से 312 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल हुई। इस विधानसभा चुनाव में भाजपा के सहयोगी दल अपना दिल को 9 विधानसभा सीटें और ओमप्रकाश राजभर की पार्टी को 4 सीटों पर जीत हासिल हुई थी।

2017 विधानसभा चुनाव में जीत के बाद बड़ी संख्या में पिछड़ा वर्ग के नेता भाजपा में शामिल हुए। इन नेताओं में मायावती के खास रहे स्वामी प्रसाद मौर्य, बाबू सिंह कुशवाहा और दारा सिंह चौहान का नाम शामिल है। इस दौरान बड़ी संख्या में पिछड़ा वर्ग वोट जो बसपा की एक बड़ी ताकत माना जाता था बसपा से हटकर भाजपा में शिफ्ट हो गया। इसी का परिणाम था कि सपा और बसपा के एक साथ आने के बावजूद भी 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा 80 में से 62 लोकसभा सीट जीतने में सफल हुई।

2022 के विधानसभा चुनावों से पहले स्वामी प्रसाद मौर्य और दारा सिंह चौहान जैसे बड़े ओबीसी नेता बीजेपी का साथ छोड़ चुके हैं। इन नेताओं का योगी आदित्यनाथ पर आरोप है कि वे पिछड़ी जातियों के साथ न्याय करने में विफल रहे हैं। दूसरी तरफ अखिलेश यादव गैर यादव पिछड़ी जातियों को इस चुनाव में अपने साथ लाने की कोशिश कर रहे हैं।