मध्य प्रदेश की 230 विधानसभा सीटों के लिए मतदान 17 नवंबर को होना है। चुनाव प्रचार खत्म होने से पहले राज्य के सभी सियासी दल हर मतदाता तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं। वैसे तो मध्य प्रदेश के हर कोने में सियासी माहौल गर्म है लेकिन राज्य के ‘सियासी इंद्रधनुष’ के तौर पर पहचाने जाने वाले विंध्याचल में ‘गर्मी’ और भी ज्यादा है। साल 2018 में एमपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने इस क्षेत्र में करीब-करीब पूरी तरह से क्लीन स्वीप किया था लेकिन कभी इस इलाके ने वामपंथियों से लेकर बीएसपी विचारधारा को भी सींचा है। अब कांग्रेस पार्टी यहां अपना ग्राफ बढ़ाने की कोशिश कर रही है जबकि अरविंद केजरीवाल की पार्टी अपना खाता खोलकर एमपी में दस्तक देने के प्रयास में है।

विंध्याचल क्षेत्र ने साल 1991 में पहली बार बीएसपी को एमपी से उसका पहला लोकसभा सांसद दिया। इसके अलावा इस क्षेत्र ने
चुनावी राजनीति में कम्युनिस्टों को भी सफलता दिलाई। यूपी से सटा एमपी के विंध्याचल क्षेत्र में 30 विधानसभा सीटें हैं। यह इलाका 9 जिलों – रीवा, शहडोल, सतना, सीधी, सिंगरौली, अनुपपुर, उमरिया, मय्यर और मऊगंज में बंटा हुआ है। पिछले विधानसभा चुनाव में यहां कांग्रेस पार्टी का प्रदर्शन बेहद खराब रहा था। कांग्रेस को विंध्याचल की जनता ने सिर्फ 6 सीटें दी थीं जबकि बीजेपी ने 30 में से 24 सीटों पर कब्जा किया था।

AAP को विंध्य से बहुत उम्मीदें

अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को इस क्षेत्र से बहुत उम्मीद है। AAP विंध्य से एमपी में एंट्री मारने का प्रयास कर रही है। उसने सिंगरौली विधानसभा सीट से सिंगरौली की मेयर रानी अग्रवाल को चुनावी रण में उतारा है। रानी अग्रवाल ने आप के टिकट पर 2022 में सिंगरौली में मेयर चुनाव जीता था। वे आम आदमी पार्टी की एमपी यूनिट की अध्यक्ष भी हैं।

इस इलाके में बीएसपी का भी था प्रभाव

आम आदमी पार्टी जिस विंध्य क्षेत्र के जरिए एमपी में दस्तक देने की कोशिश कर रही है, उस क्षेत्र में कभी बीएसपी का भी प्रभाव हुआ करता था। इस क्षेत्र ने तीन बार बीएसपी को सांसद दिए हैं। साल 1991 में भीम सिंह पटेल, साल 1996 में बुद्धसेन पटेल और साल 2009 में देवराज सिंह पटेल बीएसपी के टिकट पर संसद पहुंचे। इन तीनों ने रीवा लोकसभा सीट पर जीत दर्ज की। इसके अलावा मायावती की पार्टी गुढ़ विधानसभा सीट पस साल 1993 और साल 1998 में जीत दर्ज कर चुकी है। बीएसपी के प्रत्याशी IMP वर्मा मऊगंज विधानसभा सीट पर साल 1993 से 2003 के बीच तीन बार विधानसभा पहुंच चुके हैं। साल 1996 में बीएसपी के प्रत्याशी सुखलाल कुशवाहा ने सतना लोकसभा सीट पर कांग्रेस के दिग्गज नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह को सियासी रण में मात देकर बड़ा उलटफेर कर दिया था।

विंध्य से वाम दलों को भी मिली है सफलता

विंध्य क्षेत्र में बीजेपी-कांग्रेस के अलावा अन्य विचारधाराओं को किस कदर लोगों ने चुना है वो इस यहां के पुराने सियासी इतिहास पर नजर डालकर स्पष्ट होता है। विंध्य क्षेत्र ने रामलखन शर्मा को 1993 और 2003 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के उम्मीदवार के रूप में और 1990 में जनता दल के टिकट पर रीवा जिले की सिरमौर विधानसभा सीट से चुना। इसके अलावा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के विधायक विशंभर नाथ पांडे 1990 में गुढ़ से चुने गए थे।

इस बार विंध्य जनता पार्टी भी मैदान में

विंध्य क्षेत्र में इस बार विंध्य जनता पार्टी नाम का नया सियासी दल भी मैदान में है। इस पार्टी का गठन मैहर से पूर्व बीजेपी विधायक नारायण त्रिपाठी ने किया है। वह साल 2003 में सपा के टिकट पर विधायक चुने गए थे। वहीं दूसरी तरफ आप के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और राष्ट्रीय संयुक्त सचिव पंकज सिंह से PTI ने जब राज्य में उनकी पार्टी की संभावनाओं पर सवाल किया तो उन्होंने कहा कि वो राज्य में उपस्थिति दर्ज करवाने पर फोकस कर रहे हैं। AAP अब तक विंध्य क्षेत्र में 70 सीटों पर प्रत्याशियों का ऐलान कर चुकी है।

विंध्य के इंद्रधनुषी रंग पर क्या है जानकारों की राय?

सीनियर जर्नलिस्ट औऱ राजनीति के जानकारी जयराम शुक्ला कहते हैं कि स्वतंत्रता के बाद विंध्य ने जेपी, राम मनोहर लोहिया और आचार्य नरेंद्र देव जैसे दिग्गजों द्वारा संचालित समाजवादी आंदोलन के प्रभाव को महसूस किया। समाजवादी आंदोलन ने इस क्षेत्र में पैठ बनाई क्योंकि आजादी के बाद सामंती लोग कांग्रेस के साथ जुड़ गए और उन्हें आम नागरिकों के विरोध का सामना करना पड़ा। उन्होंने बताया कि इस क्षेत्र में आजादी के बाद सोशलिस्ट पार्टी ने कुछ सीटों पर जीत दर्ज की।

विंध्य क्षेत्र के लोगों द्वारा अलग-अलग पार्टियों के जीतने पर वो कहते हैं कि युवा शुरू में समाजवाद से प्रभावित थे। इसका नतीजा यह हुआ कि आजादी के बाद इस पिछड़े क्षेत्र के सीधी जिले की सभी आठ विधानसभा सीटों और दो संसदीय सीटों पर कांग्रेस को हार मिली। उन्होंने बताया कि समय के साथ यहां सोशलिस्ट मूवमेंट कमजोर पड़ गई और अन्य दलों ने उपस्थिति दर्ज करवाना शुरू कर दिया। 1990 के बाद बीजेपी यहां बढ़ने लगी है 1993 में उसने दमदार जीत दर्ज की। बीजेपी के ज्यादातर नेता या तो सोशलिस्ट थे या फिर पुराने कांग्रेसी।