बिहार विधानसभा चुनाव की मतगणना के बाद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सत्ता में वापसी हो गई है। नीतीश कुमार का फिर मुख्यमंत्री बनना भी तय है (ऐसे कोई संकेत भी नहीं आए हैं जिनसे लगे कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नीतीश कुमार के अलावा कोई और बैठेगा)।
चुनाव के पहले और मध्य तक राजनीतिक पंडित भी ऐसा ही अनुमान लगा रहे थे। चुनाव खत्म होने के करीब आया तो थोड़ी हवा बनी (मीडिया के जरिए) कि तेजस्वी मुद्दे सेट कर रहे हैं, उनकी सभाओं में भारी भीड़ जुट रही है, नीतीश के खिलाफ गुस्सा है…आदि-आदि…। फिर मतदान संपन्न होने के बाद एग्जिट पोल्स के नतीजे आए तो उसमें भी महागठबंधन सरकार बनने के आसार दिखाए गए। पर असली नतीजेे आए तो हालात बदल गए। इसके क्या कारण रहे। जो मैंने देखा-सुना, उसके मुताबिक जनता ने इन बातों को ध्यान में रख कर मतदान किया:
नीतीश ठीक नहीं, पर मोदी का विकल्प नहीं: राष्ट्रवाद के नाम पर कई टीवी चैनलों द्वारा की जाने वाली एकपक्षीय (केंद्र सरकार के पक्ष में) रिपोर्टिंग का बिहार के जनमानस पर गहरा असर दिखा। इन रिपोर्टिंग का असर यह हो रहा है कि जनता का बड़ा हिस्सा नरेंद्र मोदी को पाकिस्तान को उसकी जमीन में घुस कर मारने वाला और चीन का अकड़ कर सामना करने वाला हीरो मान रहा है।
इस वजह से वह नीतीश कुमार से नाखुश होते हुए भी एनडीए से मोहभंग नहीं कर पा रहा। कई बैठकियों में लोगों की बातचीत से मुझे यह साफ संकेत मिला। एक बुजुर्ग का साफ कहना था- नरेंद्र मोदी जैसा प्रधानमंत्री न हुआ और न होगा।
लॉकडाउन ने मार डाला: चुनाव के दौरान पूरे बिहार में कोरोना का कोई खौफ नहीं दिखा। यहां लोग कोरोना को बीमारी या महामारी के रूप में देख ही नहीं रहे। लोगों की जुबान पर कोरोना से ज्यादा लॉकडाउन चढ़ा हुआ है, क्योंकि लॉकडाउन ने उनकी रोजी छीन ली। प्रवासी मजदूरों को बिहार लाने की राज्य सरकार ने कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं की।
जब की, तब तक सरकार की नकारात्मक छवि बन चुकी थी। जो मजदूर बाहर से आए, वे यहां आकर भी रोटी को मोहताज हो गए। उन्होंने इसके लिए राज्य सरकार की अव्यवस्था को ही जिम्मेदार माना।
कोरोना में चुनाव होगा, पर पूजा नहीं: भागलपुर जिले के सुल्तानगंज में एक माह तक लगने वाला श्रावणी मेला इस बार कोरोना के चलते नहीं हुआ। आसपास के तकरीबन आधा दर्जन गांवों के ज्यादातर लोग साल भर जीवन-यापन के लिए इसी मेले पर निर्भर रहते हैं। दुर्गा पूजा जैसा त्यौहार मनाने पर भी पाबंदी लगी।
चुनावी मौसम में ऐसी पाबंदियों पर कई जगह लोग यह कहते सुने गए कि रैलियों से कोरोना नहीं फैलेगा, दुर्गा पूजा मनाने से कोरोना का खतरा होगा, यह सरकार का कैसा रवैया है? चुनाव के बीच मुंगेर में दुर्गापूजा विसर्जन के दौरान पुलिस फायरिंंग में एक नौजवान की मौत पर भी लोग नीतीश सरकार से काफी खफा हुए।
बीजेपी को आना चाहिए: गांव की बैठकियों में ज्यादातर चुनावी चर्चा का निचोड़ यही होता था कि बीजेपी को आना चाहिए। लोग केंद्र की कई योजनाओं का भी जिक्र करते सुनाई दिए। मसलन, उज्ज्वला गैस योजना, कोरोना-काल में राशन देने की योजना आदि।
ये किसे टिकट दे दिया? लोगों की चुनावी चर्चा के केंद्र मेंं उम्मीदवार भी खूब रहे। उनकी जाति, छवि, काम, वंशवाद आदि के आधार पर उम्मीदवारों के चयन को सही या गलत ठहराया जा रहा था। लोग यह चर्चा मतदान के दिन तक भी किया करते थे और इस आधार पर कई वोटर्स ने अपनी ‘वफादारी’ बदली। ऐसा कई वोटर्स ने मतदान बाद की बातचीत में माना भी। सुल्तानगंज विधानसभा क्षेत्र मेें भाजपा के एक परंपरागत मतदाता ने कांग्रेस को वोट देने की बात मानी और दलील दी कि कांग्रेस उम्मीदवार युवा, कर्मठ और अपेक्षाकृत ऊंची जाति (जदयू उम्मीदवार की तुलना में) का है।
रोजगार मिलेगा क्या? तेजस्वी यादव ने दस लाख नौकरियों का वादा कर रोजगार को चुनावी चर्चा बनया, लेकिन यह चर्चा जनता से ज्यादा मीडिया और नेताओं के भाषणों में हुई। युवाओं के बीच इस पर चर्चा हुई भी तो आलोचनात्मक रूप में। इस मसले पर उनकी आलोचना के केंद्र में नीतीश और तेजस्वी, दोनों रहे। कुछ इस अंदाज में कि 15 साल में दिया नहीं और कहां से दे पाएगा?