अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) को लेकर सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की बेंच ने मंगलवार को अल्पसंख्यक दर्जे से संबंधित मामले में सुनवाई की। यह विवाद लगभग 57 साल पुराना है और इस पर अदालतें कई बार फैसला सुना चुकी हैं। सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक दर्जा देने का विरोध किया। केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में जो लिखित दलीलें दाखिल की हैं उसके अनुसार, विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक का टैग न दिया जाए क्योंकि AMU का राष्ट्रीय चरित्र है। यह किसी विशेष धर्म का विश्वविद्यालय नहीं हो सकता है। इसे हमेशा से ही राष्ट्रीय महत्व का विश्वविद्यालय माना जाता है।
किसी संस्थान का ‘अल्पसंख्यक दर्जा’ क्या है?
संविधान का अनुच्छेद 30(1) सभी अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने का अधिकार देता है। यह प्रावधान अल्पसंख्यक समुदायों के विकास को बढ़ावा देता है। साथ ही इस बात का ध्यान रखता है कि केंद्र उनके ‘अल्पसंख्यक’ संस्थान होने की वजह से उन्हें सहायता देने में भेदभाव ना करे।
विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक दर्जा कब विवाद में आया?
एएमयू की अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर कानूनी विवाद 1967 से शुरू हुआ। भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश केएन वांचू के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट एएमयू में 1951 और 1965 में किए गए बदलावों की समीक्षा कर रहा था। इन संशोधनों ने विश्वविद्यालय चलाने के तरीके को इफेक्ट किया। 1920 के अधिनियम में कहा गया था कि भारत का गवर्नर जनरल विश्वविद्यालय का प्रमुख होगा लेकिन 1951 में उन्होंने इसे बदलकर ‘लॉर्ड रेक्टर’ की जगह पर ‘विज़िटर’ कर दिया और यह विज़िटर भारत का राष्ट्रपति होगा।
इसके अलावा एक प्रावधान में कहा गया था कि केवल मुस्लिम ही विश्वविद्यालय न्यायालय का हिस्सा हो सकते हैं। बाद में इसे हटा दिया गया। इसके बाद गैर-मुस्लिमों को भी इसमें शामिल होने की परमिशन मिल गई।
एएमयू में हुए इन बदलावों को सुप्रीम कोर्ट में कानूनी चुनौती दी गई। याचिकाकर्ताओं ने इस आधार पर तर्क दिया कि मुसलमानों ने एएमयू की स्थापना की और इसलिए विश्वलविद्यालय को उनके हिसाब से चलाया जाए। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 20 अक्टूबर, 1967 को कहा कि एएमयू की स्थापना न तो मुस्लिमों ने की और ना ही इसका संचालन किया।
कोर्ट ने कहा था एएमयू की स्थापना केंद्रीय अधिनियम के जरिए से की गई थी ताकि सरकार उसकी डिग्री की मान्यता सुनिश्चित कर सके। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसलने में कहा था कि यह अधिनियम मुस्लिमों की कोशिशों के बाद पारित किया गया। इसका मतलब यह नहीं है कि विश्वविद्यालय की स्थापना मुस्लिमों ने की थी।
क्यों बना रहता है विवाद?
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद देश भर में मुस्लिमों ने विरोध करना शुरू कर दिया। इसके जवाब में एएमयू अधिनियम में एक संशोधन पेश किया गया। जिसमें साफ तौर पर इसकी अल्पसंख्यक स्थिति की पुष्टि की गई। संशोधन में धारा 2(एल) और उपधारा 5(2)(सी) पेश की गई। जिसमें कहा गया कि विश्वविद्यालय “भारत के मुसलमानों द्वारा स्थापित उनकी पसंद का एक शैक्षणिक संस्थान” था और “बाद में इसे एएमयू के रूप में शामिल किया गया”।
वहीं 2005 में एएमयू ने एक आरक्षण नीति लागू की जिसमें मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए मेडिकल पीजी डिग्री में 50% सीटें आरक्षित की गईं। इसे इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी गई। कोर्ट ने उसी साल आरक्षण को पलट दिया और 1981 अधिनियम को कैंसिल कर दिया। कोर्ट ने तर्क दिया कि एएमयू विशेष आरक्षण बरकरार नहीं रख सकता क्योंकि एस. अज़ीज़ बाशा मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, यह अल्पसंख्यक संस्थान योग्य नहीं था। इसके बाद 2006 में केंद्र सरकार ने हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।
2016 में एनडीए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि वह सरकार द्वारा दायर अपील को वापस ले रही है। इसके बाद 12 फरवरी, 2019 को तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच ने मामले को सात जजों की बेंच के पास भेज दिया। अब मंगलवार को भारत के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजीव खन्ना, सूर्यकांत, जेबी पारदीवाला, दीपांकर दत्ता, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र शर्मा की खंडपीठ ने मामले की सुनवाई शुरू की।