भारत और पाकिस्तान के बीच अग्निपरीक्षा का समय है। दोनों देशों की कमान दो ऐसे राजनीतिज्ञों के हाथ में है जो आपसी तनाव खत्म करके अमन और शांति का ध्वज लहराने के इच्छुक दिखते हैं। लेकिन ऐसा लगता नहीं कि इन दोनों के प्रयासों को इनके देशों की जनता और बाकी राजनीतिक दलों का पूरा समर्थन हासिल है। और इसकी साफ वजह यह है कि सत्ता में बने रहने के लिए ये घरेलू नीति के तहत तो पड़ोसी देश को हर समस्या की जड़ बता कर वोट लेते हैं और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेहतर कूटनीतिक छवि बनाने के लिए संबंध सुधारने पर जोर देते हैं। और यही विरोधाभास इन दोनों नेताओं को पहले अपने घर में मात देता है जिसके बाद संबंध सुधार की गाड़ी पटरी से उतर जाती है। दोनों नेताओं की इसी अग्निपरीक्षा की स्थिति पर पढ़ें इस बार का बेबाक बोल
आखिर वे क्या वजहें होंगी जिनके कारण भारत या पाकिस्तान में नेताओं को अपनी सत्ता की दुहाई के लिए जनता से यह कहना पड़ता है कि अगर आपने हमें मौका नहीं दिया तो एक तरह से आप पड़ोसी दुश्मन देश का काम करेंगे! जनता कई बार अपने नेताओं के ऐसे आह्वान के प्रवाह में आती है तो कभी नहीं भी आती।
हालत यह है कि एक तरफ पाकिस्तान के शासकों और राजनीतिज्ञों को जब जनता के सामने जवाब देने की नौबत आती है तो वे न जाने किस असुरक्षाबोध में वहां की हर गड़बड़ी के लिए भारत को जिम्मेदार ठहराने में कोई कसर नहीं छोड़ते। दूसरी ओर, भारत में तस्वीर बहुत अलग नहीं है। मौजूदा सत्ताधारी पार्टी के नेता तो जनता को ‘डराते’ तक हैं कि भाजपा हारी तो पटाखे पाकिस्तान में फूटेंगे या फिर किसी भी असहमति की बात पर ‘पाकिस्तान चले जाओ’ की धमकी देते हैं। लेकिन जैसे ही चुनावी हवा शांत होती है तो कभी विदेश सचिव स्तर या मंत्री स्तरीय बातचीत शुरू हो जाती है, तो कभी भारत के प्रधानमंत्री बिना किसी पूर्व सूचना के हवाई जहाज को पाकिस्तान में उतार कर नवाज शरीफ से मिलने चले जाते हैं और इसे दोनों देशों में परंपरागत ‘दोस्ती’ होने के परिचायक के तौर पर पेश किया जाता है। लेकिन इस बीच पठानकोट हमला भी हो जाता है। फिर भी पीछे की सारी बातें सब कुछ गायब दिखती हैं।
जो हो, पटल पर दिखने वाली तस्वीर के बरक्स फिलहाल भारत और पाकिस्तान के बीच परीक्षा का यह एक बहुत मुश्किल और द्वंद्व भरा दौर है। कम से कम दिखने के स्तर पर दोनों देशों की कमान दो ऐसे राजनीतिज्ञों के हाथ में है जो दोनों देशों के बीच का तनाव खत्म करके अमन और शांति का ध्वज लहराने की बात करते हैं। लेकिन ऐसा लगता नहीं कि इन दोनों के प्रयासों को इनके देशों के बाकी राजनीतिक दलों का पूरा समर्थन हासिल है।
पाकिस्तान के मामले में तो दशा और भी खराब है। हालांकि इधर कांग्रेस से लेकर महाराष्टÑ में भारतीय जनता पार्टी की सहयोगी शिवसेना तक ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। भले ही एक वर्ग मोदी के अंदाज का विरोध कर रहा है, पर मोदी को सरकार के अंदर से जाहिर तौर पर पूरा समर्थन है। लेकिन पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को तो ऐसा लगता नहीं कि यह भी पता होता है कि उनकी अपनी ही सेना शांति वार्ता को पटरी से उतारने के लिए अगली कौन-सी चाल चलेगी?
मोदी और शरीफ की बेतकल्लुफ मुलाकातों के बाद पठानकोट वायुसेना अड्डे पर हुए हमले की जांच को लेकर जब दोनों देशों में आपसी सहमति बनी तो भाजपा प्रवक्ताओं ने इसे ऐसा दिखाया, मानो कोई किला फतह कर लिया हो या ऐसा पहली बार हुआ है। पाकिस्तान ने यह लगभग मान ही लिया था कि पठानकोट हमला उसी की धरती पर से हुआ। इसके बाद जैसे ही पाकिस्तान की संयुक्त जांच टीम के आइएसआइ के साथ संबंध का खुलासा हुआ, सबकी बोलती ही बंद हो गई। सभी पार्टी प्रवक्ता कैमरे और माइक से बचते दिखे। आखिर भारत एक ऐसी एजंसी के नुमाइंदों को, जो हर समय यहां अस्थिरता फैलाने की कोशिशों में जुटी रहती है, जिनकी सरपरस्ती में आतंकवादियों के प्रशिक्षण शिविर चलते हैं, कैसे अपने देश के अहम सैन्य ठिकाने, जो सीमा के भी पास है, पर दौरे की इजाजत दे सकता है।
लेकिन जब तक इस टीम में आइएसआइ एजंट के शामिल होने का पर्दाफाश हुआ, तब तक देर हो चुकी थी। उसके बाद जो हुआ, पाकिस्तान से उसकी ही उम्मीद थी। जांच टीम अभी वापस भी नहीं हुई थी कि पाकिस्तान ने फैला दिया कि भारत ने हमले की सारी कहानी खुद गढ़ी है। सूत्रों की मानें तो जिस दिन टीम भारत आई, उसी दिन शांति प्रक्रिया पर आघात करने के लिए इस्लामाबाद ने भारतीय जासूस को पकड़ने का दावा कर दिया। खबर को पूरे मीडिया में सनसनी के साथ पेश किया गया। मगर कुलभूषण जाधव को वाकई उसी दिन पकड़ा गया, इसका कोई पुख्ता सबूत नहीं है। असल में इस सारे मामले को शायद उसी दिन के लिए बचा कर रखा गया था।
पाकिस्तान ने अपनी सोची-समझी साजिश के तहत जासूस की कहानी जगजाहिर की। मकसद था, दुनिया की नजर में खुद को भोला, मासूम और ‘बड़ा’ दिखाना। यह कि देखो, हमने भारत आकर जांच कर ली और उन्हें नहीं आने दिया। लेकिन यह छद्म और झूठा सियासी दंभ ज्यादा टिकाऊ नहीं होने वाला। उलटे असर यह हुआ कि नवाज शरीफ की बतौर सेना की कठपुतली की ही छवि बनी। अभी तक के हालात से ऐसा नहीं लगता कि पाकिस्तान की पहले ही दिन से भारत की जांच टीम को इजाजत देने की कोई मंशा थी। पहले सबूत गढ़ने का आरोप और साथ ही साथ जासूस की गिरफ्तारी। और फिर इशारों में यह कहना कि जब पाकिस्तान की कोई भूमिका नहीं, तो फिर भारतीय टीम इस्लामाबाद क्यों आए!
लेकिन यह सब भारत को रोकने के लिए काफी नहीं था। आखिर दोनों देशों के आपसी संबंधों पर अंतरराष्टÑीय एजंसियों की भी नजदीकी नजर रहती है। इसलिए आपसी सद्भाव और पठानकोट हमले की जांच को दफन करने के लिए आखिरी कील पाकिस्तानी उच्चायुक्त अब्दुल बासित ने ठोकी।
जब भारत अपनी जांच टीम के दौरे के लिए पाकिस्तान पर दबाव बना रहा था तो बासित ने यह कह कर रुख ही बदल दिया कि जांच टीम की अदला-बदली की कोई बात नहीं थी। हालांकि यह सभी जानते हैं कि समझौता यही था कि दोनों देशों की टीम सरहद के आर-पार जांच करेगी। लेकिन पाकिस्तान ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पाकिस्तान की टीम को पहले आने देने के फैसले को उनकी कमजोरी समझा और आंखें दिखानी शुरू कर दी।
पाकिस्तान के मामले में हर फैसले को सीधे प्रधानमंत्री से जोड़ कर देख लिया जाता है और ऐसा हो भी क्यों नहीं! इस मामले में सारे फैसले वे खुद ही लेते हैं। शरीफ के साथ दोस्ताने का दावा भी उनका ही है। और सारे कूटनीतिक शिष्टाचार को धता बता कर पाकिस्तान की धरती पर शरीफ के निजी कार्यक्रम में पहुंचना कम से कम पाकिस्तानी सेना और देश के विपक्ष को नहीं भाया। कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने पूछा भी, ‘आखिर क्यों हम पाकिस्तान के आगे घुटने टेक रहे हैं। मनसे प्रमुख राज ठाकरे का भी यही कहना है कि मोदी बदल गए हैं। शिवसेना की आवाज भी ऐसी है कि लोगों ने चुने जाने से पहले वाले मोदी को वोट दिया था। ऐसा लगता है कि समय आ गया है कि मोदी कम से कम पाकिस्तान या नवाज शरीफ के साथ अपनी निजी नजदीकियों पर पुनर्विचार करें। उनके अब तक के अंदाज पर बेशक वे विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की ‘दैट्स लाइक ए स्टेट्समैन’ जैसी प्रशस्ति पंक्ति के हकदार हो गए हों, लेकिन इसका समूचा प्रभाव उनकी कमजोरी ही जाहिर कर रहा है। और अगर मोदी पाकिस्तान को कोई आसान रास्ता देना चाहते हों तो कहीं ऐसा तो नहीं कि इस रास्ते का छोर अब समाप्त हो गया हो। अब वे इसे एक और गांठ लगाकर आगे विस्तार दे दें।
संयोग से पाकिस्तान के नए राष्टÑीय सुरक्षा सलाहकार नासिर खान जंजुआ एक पूर्व फौजी हैं और पाकिस्तान के सेना प्रमुख राहिल शरीफ के साथ अपनी नजदीकियों के लिए जाने जाते हैं। ऐसे में नवाज शरीफ अपनी संस्थाओं के सामने कमजोर पड़ते दिख रहे हैं। और कहना न होगा कि दोनों देशों के बीच फैसले एक-दूसरे को निजी हैसियत में ‘हैप्पी बर्थ डे’ कहने से कहीं आगे है। जिस तरह से शरीफ अलग-थलग पड़ते दिखाई दे रहे हैं, उससे उनकी बेचारगी ही जाहिर हो रही है।
उधर मोदी के लिए पांच राज्यों के चुनाव के मौके पर ऐसी कूटनीतिक दुश्वारी कहीं सरकार और पार्टी दोनों पर भारी न पड़ जाए। यह सच है कि पार्टी के अंदर भी एक बड़ा वर्ग है जो मोदी की शैली के खिलाफ है। लेकिन शरीफ के बरक्स देखा जाए तो मोदी देश और पार्टी में अभी तक अपनी अक्षुण्ण सत्ता व अधिकार बनाए हुए हैं।
यह सर्वविदित है कि शरीफ के लिए सेना, आइएसआइ और राष्टीय सुरक्षा सलाहकार के हमले को झेलना कठिन है। जिस तरह से भारत में मोदी पर दबाव पड़ रहा है, वहां भी यह ज्यादा देर नहीं चलने वाला। श्रीनगर के एनएआइटी में जो हुआ, उसने देश को झकझोर कर रख दिया है। कश्मीर में पीडीपी-भाजपा की सरकार की नाक के नीचे पाकिस्तान का झंडा पूरी बेशर्मी और सुरक्षा व्यवस्था को धता बता कर लहराया जा रहा है और देश के बाकी हिस्सों में ‘राष्टीवाद’ का दम भरने वाली भाजपा वहां मूक तमाशा देख रही है। यहां तक कि मामला दर्ज करने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रही। यह कब तक चलेगा कि कश्मीर में सत्ता हासिल करने की नीति अलग और देश के बाकी हिस्सों में अलग!
हालांकि इस बीच भारत ने पाकिस्तान को अपना कड़ा रुख दिखाने की कोशिश तो की है, लेकिन अब इस तरह के रुख औपचारिकता ही लगते हैं। एनआइए की विशेष अदालत ने मसूद अजहर की गिरफ्तारी का वारंट जारी कर दिया, लेकिन क्या उसे उस तक पहुंचाया भी जाएगा? भारतीय टीम को पाकिस्तान में दाखिल होने की इजाजत तो है नहीं, तो वारंट क्या डाक से भेजेंगे? अजहर की गिरफ्तारी की गारंटी होगी? भारतीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल का यह कह देना काफी नहीं है कि पाकिस्तान अपने वादे के मुताबिक भारतीय टीम को पाक आने की इजाजत दे। और अगर इस बार भी पाकिस्तान ने कोई सकारात्मक जवाब नहीं दिया तो क्या मोदी अपनी नीति पर पुनर्विचार करेंगे? देश उनसे यह जानना चाहता है। आखिर पाकिस्तान से संबंध लोगों के लिए, खासकर उत्तर भारत के लोगों के लिए जो सरहद की नजदीकियों में हैं, बहुत मायने रखते हैं। शायद भाजपा के भगवा एजंडे और राम मंदिर निर्माण से भी ज्यादा।
हालांकि सच यह भी है कि संयुक्त जांच टीम के इस्लामाबाद दौरे से पाकिस्तान का मुकर जाना यों ही नहीं है। इसकी ठोस पृष्ठभूमि है। पाकिस्तान का एक कथित रॉ एजंट को पकड़ना और फिर चीन का जैश-ए-मुहम्मद के मुखिया मसूद अजहर के पक्ष में खड़ा हो जाना उसकी ठोस वजह है। जबकि भारत कुलभूषण जाधव के साथ किसी भी तरह के संबंध से इनकार कर चुका है। लेकिन पठानकोट हमले पर बैकफुट पर आए पाकिस्तान को यह अपने हाथ में तुरूप के पत्ते की तरह लगा जिसका उसने इस्तेमाल भी किया। बाकी कसर संयुक्त राष्टÑ में मसूद अजहर पर चीन के रुख ने पूरी कर दी। लिहाजा पाकिस्तान को नियंत्रित करने वाली सेना और खुफिया एजंसियां अपने दुस्साहस पर उतर आर्इं और हमेशा की तरह वहां के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ असहाय दिखाई दिए। शरीफ की अपने देश में मोदी जैसी मजबूत स्थिति नहीं है। यहां मोदी पार्टी, सरकार और यहां तक कि उन्हें रिमोट से चलाने वाले राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ पर भी भारी पड़ते हैं।
आने वाले किसी संभावित संकट की इस घड़ी में सबकी नजरें मोदी पर हैं, जिन्होंने खुद से लोगों की अपेक्षाएं इतनी ऊंची कर दी हैं कि लोग उनसे जादू जैसा असर चाहते हैं। मंचों से जिस तरह वे पाकिस्तान की र्इंट से र्इंट बजाने का नारा दे चुके हैं और दाऊद इब्राहीम की गर्दन पकड़ कर खींच लाने का अहसास कराते हैं, वह लोगों के स्मृतिपटल पर अभी भी ताजा है। ऐसा न हो कि कुछ न हो और फिर उनके सिपहसालार अमित शाह को ही आगे आकर कहना पड़े कि ‘यह भी तो एक जुमला ही था’।
लेकिन दोनों नेताओं को एक बात समझनी होगी कि आपका निजी तौर पर अच्छा होना ही दो तनावग्रस्त देशों के बीच अमन-चैन के लिए काफी नहीं। इसके लिए दोनों को ही आगे बढ़ना होगा और अमन की बहाली के लिए जो भी संभव है उसे अंजाम देना होगा। मोदी के लिए स्थिति ज्यादा चिंताजनक है। यहां उनकी जवाबदेही न सिर्फ जनता, बल्कि अपनी सरकार, पार्टी और विपक्ष के प्रति भी है। इस मामले में उन्हें फौरी कोई दुष्प्रभाव न भी दिखे, लेकिन अगले चुनाव में जरूर इसका हिसाब देना होगा। या फिर यह भी हो सकता है कि वे पाकिस्तान की र्इंट से र्इंट बजाने के लिए पांच साल का समय और देने की गुहार लगाएं!
लेकिन इन दिलासों और उम्मीदों के बीच दोनों देशों की जनता की अपेक्षाएं क्यों पिसती रहें! पड़ोसी अगर एक-दूसरे की ताकत बनें तो किसी महाशक्ति को भी इन पर नजर उठाने के लिए सोचना पड़ेगा, लेकिन अगर दुश्मन बन जाएं तो कोई भी अपने हित में दोनों का इस्तेमाल करना चाहेगा! राजनीतिक मोर्चे पर अब तक भारत और पाकिस्तान के शासक तबके जनता के भीतर एक-दूसरे के खिलाफ भरी गई आशंकाओं और डर से ही खुराक पाते रहे हैं। बेहतर यह हो कि इस तरह के धुंधलकों में दोनों देशों की जनता की भावनाओं का कारोबार न किया जाए। शायद यह दोहराने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए कि सीमा के दोनों के साधारण लोग शांति और सुकून के साथ जीना चाहते हैं और उनमें से ज्यादातर एक-दूसरे को दोस्त के तौर पर देखने की हसरत रखते हैं!