शक्र है, वर्ष 2020 अब समाप्त होने को है। हर देश जैसे अपने घाव सहला रहा है, कुछ इससे पार पाने की ओर बढ़ रहे हैं। अभी कोविड-19 खत्म नहीं हुआ है, बेशक इसके खतरे कुछ कम हो गए हैं और इसके टीके का वितरण शुरू हो जाने से कुछ उम्मीद बनी है। भारत भी इससे प्रभावित है और इसकी अर्थव्यवस्था को सबसे अधिक चोट पहुंची है।
लाखों लोगों (खासकर प्रवासी मजदूरों और रोजगार गंवा चुके लोगों) के जीवन पर इसका असर पड़ा है और उनका घाव अधिक गहरा है। इसके बावजूद फूट डालने और ध्रुवीकरण करने की कोशिश में दिए जाने वाले बयान रुक नहीं रहे। खासकर श्री अमित शाह और श्री आदित्यनाथ सहित दूसरे कई लोग सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने पर तुले हैं।
वर्ष 2020 का सबसे अमिट सबक यह है कि अगर तीन पैमानों- उद्यम, समृद्धि और खुशहाली- के स्तर पर ह्रास होता है, तो राष्ट्र को भारी खमियाजा भुगतना पड़ेगा। वर्षांत का अपना यह स्तंभ मैं इसी सबक पर केंद्रित करना चाहता हूं।
उद्यम
अंतत: काम ही एक आदमी को दूसरे आदमी से अलग पहचान देता है। ऐसे हजारों लोग हैं, जिनके पास कोई काम नहीं है, हालांकि इस वक्त वे काम करना चाहते हैं, क्योंकि काम करके सुख मिलता है, इज्जत बढ़ती, धन अर्जित होता और अपने वर्ग के लोगों के बीच तथा वृहत्तर समाज में दृढ़ निश्चय के साथ अपने सिद्धांतों पर खड़े होने का साहस मिलता है। दूसरी तरफ ऐसे लाखों लोग हैं, जिन्हें काम की जरूरत है, मगर उन्हें काम नहीं मिल पा रहा, वे बेरोजगार हैं। आखिरी गणना तक भारत में बेरोजगारी की दर 8.7 प्रतिशत थी (सीएमआई, 22 दिसंबर, 2020। इसमें वे लोग शामिल नहीं हैं, जो श्रमबल में शामिल नहीं होना चाहते या जो घर में रह कर उद्यम करते हैं।
भारत जैसे विकासशील देश में बेरोजगारी सदा से एक बहुत बड़ी चुनौती रही है। तेजी से घटती विकास दर (2018-19 और 2019-20) बेरोजगारी बढ़ाने में सहायक होती है। महामारी ने इसे भयावह बना दिया है। बिना सोचे-समझे लागू की गई पूर्णबंदी ने स्थिति को और खराब कर दिया। अब यह अपने चरम पर है, जब 1.3 करोड़ लोग अपनी नौकरियां और जीविका के साधन खो चुके हैं। नौकरियां धीरे-धीरे वापस मिलनी शुरू होंगी, मगर कुछ नौकरियां सदा के लिए खत्म हो गई हैं। आंकड़े खुद इसके गवाह हैं।
समृद्धि
किसी भी राष्ट्र की समृद्धि का अनुमान लगाने के लिए सबसे आसान पैमाना है उसका सकल घरेलू उत्पाद। अगर जीडीपी बढ़ती है, तो समृद्धि भी बढ़ती है और देश के नागरिकों की औसत सहभागिता (प्रति व्यक्ति आय) विस्तृत होती है। मैंने बहुत आसान पैमाना लिया है: अचल मूल्यों में जीडीपी। 2017-18 के बाद विकास दर की रफ्तार धीमी दिखाई देने लगी थी और 2020-21 में यह संवृद्धि के लिए विध्वंसक नजर आने लगी (कृपया देखें सारणी)। एक विकासशील देश के लिए इसे किसी भी रूप में उत्साहजनक नहीं माना जा सकता कि यहां लाखों लोग गरीबी में जी रहे हैं। इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि लोगों में भविष्य के प्रति एक गहरी निराशा नजर आने लगी है।
खुशहाली
बेरोजगारी और धीमी (नकारात्मक) विकास दर का युग्म खुशहाली पर असर डालता है। मेरा मकसद सिर्फ आर्थिक खुशहाली तक सीमित नहीं है। निस्संदेह भोजन, स्वास्थ्य सुविधाएं और सामाजिक सुरक्षा भी महत्त्वपूर्ण हैं, मगर खुशहाली का अर्थ भौतिक वस्तुओं और सेवाओं से आगे जाता है। अगर आप खुद से कुछ सवाल पूछें तो इसका अर्थ समझ में आ जाएगा। क्या लोगों को लगता है कि वे आजाद हैं? क्या वे अतिशय भय में जी रहे हैं? क्या उन्हें यह डर सताता रहता है कि स्वतंत्र मानी जाने वाली सीबीआइ, ईडी, आयकर विभाग, एनसीबी और एनआइए जैसी एजेंसियां कभी भी उन्हें हड़का और प्रताड़ित कर सकती हैं?
क्या लोगों को इस बात पर भरोसा है कि कानून की अदालतों तक सहज पहुंच उपलब्ध है और वहां वास्तव में न्याय मिल पाएगा? क्या दो जवान लोग आपस में दोस्त हो सकते हैं, वे बाहर साथ जा सकते हैं, प्यार और शादी कर सकते हैं? क्या कोई लड़की अपनी मर्जी से खाना खा सकती है, कपड़े पहन सकती है, कुछ बोल या लिख कर दूसरे लोगों से जुड़ सकती है? ‘खुशहाली’ इन सारी चीजों से मिल कर बनती है। तुलनात्मक रूप से देखें तो कुछ संकेतकों के आधार पर समझ सकते हैं कि भारत की स्थिति क्या है। वे संकेतक हैं मानव विकास सूचकांक, स्वतंत्रता सूचकांक, प्रेस की स्वतंत्रता सूचकांक (सारणी देखें)। इन सारे मामलों में लगातार क्षरण ही हुआ है।
तीन अमिट तस्वीरें
लोकतंत्र में हर अच्छे या बुरे की जिम्मेदारी सरकार को लेनी पड़ती है, उसकी वजहें चाहे बाहरी हों या अंदरूनी विकास। सरकार की मंशा हमेशा अच्छी होनी चाहिए। उसे सदा बेहतर उपलब्ध सुझाव ग्रहण करने चाहिए, अनचाही गलतियों को सुधारने के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए। मगर सरकार ने इस मामले में सारे रास्ते बंद कर रखे हैं। अच्छी हों या बुरी, सरकारें बदल जाती हैं। इसीलिए बहुत सारे देशों में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की सीमाएं तय की गई हैं। स्थायीत्व का भाव हमेशा पतन की शुरुआत का कारण बनता है।
हम साल खत्म होने के समीप हैं और 2020 की तीन अमिट तस्वीरें देख पा रहे हैं-
1- लाखों प्रवासी- थके, भूखे, बीमार- अपने कंधों पर गठरी-मोटरी लादे राष्ट्रीय राजमार्गों और रेल की पटरियों पर पांव घसीटते सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने घरों की तरफ बढ़ते हुए, आंखों में यह विश्वास लिए कि अब वही उनका ठिकाना है।
2- लंबे शांतिपूर्ण धरने- पहले शाहीनबाग और अब दिल्ली की सीमाओं पर, इस मांग के साथ कि सरकार उनकी बात सुने और उनकी अपीलों पर न्याय करे।
3- सरकार द्वारा 5 अगस्त, 2019 को असंवैधानिक तरीके से किए गए स्थिति बदलाव के व्यापक विरोध के बाद अब कश्मीर घाटी में मतदान की अनुगूंजें।
कुल मिलाकर उद्यम, संवृद्धि और खुशहाली के स्तर पर 2020 एक अविस्मरणीय साल बन चुका है। फिर भी मैं आपसे आग्रह करता हूं, जार्ज सनतायन के शब्दों में, कि अगर 2020 को नहीं भुला सकते तो कोशिश करें कि 2020 फिर से दोहराया न जा सके। इसके बजाय गर्वोन्नत, भयमुक्त और आजादी पसंद भारतीय बनें। स्वस्थ, खुशहाल और समृद्धिदायक 2021 की मेरी अनेक मंगलकामनाएं।