एक सभ्य समाज, संस्था और व्यक्ति की पहचान इससे भी होती है कि वह सामान्य व्यवहार में किस तरह की भाषा का इस्तेमाल करता है। खासकर महिलाओं के बारे में उपयोग किए जाने वाले शब्दों, वाक्यों से उस समाज की मानसिकता का भी पता चलता है। इस मामले में भारत के अधिकतर समाजों में स्त्री के प्रति बहुत सारे असम्मानजनक शब्द चलन में हैं।
वही शब्द धीरे-धीरे प्रशासनिक और अदालती कामकाज में भी घुसपैठ कर गए हैं। सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश ने ऐसे शब्दों की पहचान की और उन्हें अदालती भाषा से बाहर करने का फैसला किया। एक टीम बना कर ऐसे शब्दों की पहचान की गई, जो महिलाओं के लिए प्राय: समाज में रूढ़ और अपमानसूचक हैं।
उन शब्दों की जगह प्रयुक्त हो सकने वाले शब्दों और वाक्यों के विकल्प भी तलाशे गए और फिर ‘हैंडबुक आन कांबैटिंग जेंडर स्टीरियोटाइप’ शीर्षक से तीस पन्नों की एक पुस्तिका प्रकाशित की गई। इसमें उन शब्दों की सूची दी गई है, जो अदालती कामकाज में प्रयोग होते रहे हैं। वे शब्द अदालती फैसलों तक में प्रयुक्त हुए हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि उन रूढ़ हो चुके शब्दों के बजाय उनके सम्मानजनक विकल्पों का उपयोग किया जाए। यह पुस्तिका वकीलों और न्यायाधीशों दोनों के लिए है।
यह पहली बार है जब किसी प्रधान न्यायाधीश का ध्यान अदालती भाषा में घुसपैठ कर चुके स्त्रियों के प्रति इस्तेमाल होने वाले रूढ़ और अपमानसूचक शब्दों की तरफ गया। इस साल महिला दिवस पर उन्होंने इसे लेकर न सिर्फ अफसोस जाहिर किया, बल्कि उन शब्दों को हटाने का उपक्रम भी किया। प्रधान न्यायाधीश ने पुस्तिका जारी करते हुए कहा भी कि महिलाएं पुरुष के अधीन नहीं, बल्कि संविधान में उन्हें बराबरी का हक है।
उनके प्रति किसी भी ऐसे शब्द का उपयोग नहीं होना चाहिए, जिससे उनका सम्मान आहत होता हो। इस पहल से निस्संदेह अदालत की भाषा में महिलाओं की सम्मानजनक जगह बनेगी। यह उन तमाम संस्थाओं के लिए भी नजीर बनेगी, जो बिना सोचे-समझे अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल करते हैं।
इसका असर बौद्धिक समाज और फिर उसके नीचे समाज पर भी दिखना शुरू होगा। दरअसल, शिक्षा का स्तर ऊंचा उठने के बावजूद महिलाओं के प्रति हमारे समाज का नजरिया संकीर्ण है। उन्हें अपमानित करने की मंशा से लोक और शास्त्रीय भाषा में भी बहुत सारे ऐसे शब्द गढ़ लिए गए हैं, जिन्हें गाली कहा जा सकता है।
मगर इनके अलावा भी बहुत सारे ऐसे शब्द गढे गए हैं, जो अपमानजनक हैं और सामान्य कामकाज की भाषा में रूढ़ हो चुके हैं। मसलन, बिन व्याही मां। सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी जगह केवल मां शब्द का प्रयोग करने का सुझाव दिया है। ऐसे शब्दों की लंबी सूची है।
जब शीर्ष संस्थाएं भाषा को लेकर सावधानी बरतना शुरू करती हैं, तो उसका प्रभाव नीचे तक पहुंचता है और लोग सामान्य व्यवहार में भी उसे उतारना शुरू कर देते हैं। उम्मीद बनती है कि लोग अब महिलाओं के प्रति इन रूढ़ शब्दों से परहेज करेंगे। हमारे समाज में महिलाओं के प्रति लैंगिक भेदभाव के अनेक स्तर हैं, उनमें भाषा भी एक है।
संविधान में महिलाओं और पुरुषों के बीच के भेद को समाप्त करने के लिए समय-समय पर कई प्रावधान किए गए, मगर उनके लिए इस्तेमाल की जाने वाली भाषा को परिष्कृत करने का प्रयास नहीं किया गया था। अब वह सुनिश्चित हो सका है। इस तरह सर्वोच्च न्यायालय की ताजा पहल महिलाओं के प्रति समुचित भाषा न्याय है।