पश्चिम बंगाल में अक्सर कानून व्यवस्था के मसले सियासी बयानबाजियों में उलझा दिए जाते हैं, जिसका नतीजा होता है कि न तो प्रशासन उनसे कोई सबक लेता है और न उसकी जवाबदेही पर आमजन के सवालों के जवाब मिल पाते हैं। मुर्शिदाबाद में भड़की सांप्रदायिक हिंसा का हश्र भी वही होता नजर आ रहा है। इस मसले पर विपक्षी भाजपा और सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस एक-दूसरे पर ठीकरा फोड़ने में जुट गई हैं। वक्फ संशोधन अधिनियम के विरोध में वहां आंदोलन शुरू हुआ और बीते शुक्रवार को इसने अचानक हिंसक रुख अख्तियार कर लिया। उसमें तीन लोग मारे गए और कई लोगों के घायल होने की सूचना है।

घरों-दुकानों और पुलिस वाहनों में तोड़-फोड़ तथा आगजनी की गई। जब स्थिति पर काबू पाना मुश्किल हो गया तो सीमा सुरक्षा बल को बुलाया गया। फिर भी हालात बेकाबू रहे तो बीएसएफ और अन्य सुरक्षा बलों की अतिरिक्त टुकड़ियां तैनात कर दी गईं। स्थिति इस कदर खौफनाक हो गई कि सैकड़ों लोग अपना घर-बार छोड़ कर निकटवर्ती जिले में सुरक्षित जगहों पर पलायन कर गए। भाजपा का आरोप है कि यह हिंसा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बयान की वजह से भड़की। वहीं सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस का आरोप है कि हिंसा करने वाले लोग बाहर से लाए गए थे।

पश्चिम बंगाल में वक्फ संशोधन अधिनियम लागू नहीं लागू होने देने की तैयारी

हालांकि फिलहाल स्थिति सामान्य होती बताई जा रही है। प्रशासन का दावा है कि हिंसा करने वालों की पहचान कर उनके खिलाफ उचित कार्रवाई की जाएगी। कुछ लोगों को इस सिलसिले में गिरफ्तार भी किया जा चुका है। मगर यह सवाल अपनी जगह है कि क्या पश्चिम बंगाल सरकार और प्रशासन को इस बात का अंदाजा नहीं था कि मुर्शिदाबाद और उसके आसपास के इलाकों में ऐसी स्थिति बन सकती है। खुद मुख्यमंत्री ने ऐलान किया था कि वे पश्चिम बंगाल में वक्फ संशोधन अधिनियम लागू नहीं होने देंगी।

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उन्हें इसके विरोध में उभरने वाले आंदोलन की भी पूरी जानकारी थी। फिर, उन्हें यह अंदाजा कैसे नहीं था कि इसमें दो समुदायों के बीच टकराव की स्थिति बन सकती है। अगर वे कह रही हैं कि हिंसा करने वाले बाहर से लाए गए थे, तो हैरानी की बात है कि इसकी जानकारी वहां के खुफिया तंत्र को कैसे नहीं मिल सकी। इतनी बड़ी संख्या में लोग वहां बाहर से पहुंच गए और कैसे सुरक्षाबलों को इसकी भनक नहीं मिल पाई। इस तर्क के आधार पर सरकार अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकती।

राजनीतिक संरक्षण से बनती है ऐसी स्थिति

अनेक मौकों पर, सियासी आवेश में, दो राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं को परस्पर भिड़ते देखा गया है। हर चुनाव के वक्त वहां ऐसी स्थिति बन जाती है, सामान्य आंदोलनों के समय भी इसकी आशंका बनी रहती है। पश्चिम बंगाल की राजनीति में हिंसा कुछ इस कदर घुल-मिल गई है कि हर राजनीतिक दल मौका मिलते ही अपने कार्यकर्ताओं को जोर-आजमाइश के लिए ललकारता देखा जाता है।

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यह भी छिपी बात नहीं है कि वहां उपद्रवी तत्त्वों को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है। हर सत्तारूढ़ दल परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से अपने कार्यकर्ताओं को लाभ पहुंचाने और कानूनी शिकंजे से दूर रखने का भरोसा देता नजर आता है। वक्फ संशोधन कानून के पक्ष और विपक्ष में किस कदर राजनीतिक रस्साकशी का माहौल है, वह किसी से छिपा नहीं है। फिर पश्चिम बंगाल सरकार ऐसी किसी स्थिति से बेखबर कैसे थी और उसने हिंसा रोकने की पहले से तैयारी क्यों नहीं की थी!