कश्मीर घाटी में दहशतगर्दों का मनोबल किसी भी रूप में टूटता नजर नहीं आ रहा। वे रणनीति बदल-बदल कर हमले करने में कामयाब हो जा रहे हैं। कभी वे सीधे सेना और पुलिस ठिकानों को निशाना बनाते हैं, तो कभी लक्षित हिंसा की रणनीति अपना लेते हैं। पिछले कुछ समय तक वे सुरक्षाबलों के काफिले पर घात लगा कर हमला करते देखे जा रहे थे, अब फिर से चुन-चुन कर आम नागरिकों निशाना बनाने लगे हैं।
बच्चों के साथ खेल रहे पुलिस अधिकारी को मार दी गोली
पिछले चौबीस घंटों के भीतर जिस तरह दो अलग-अलग जगहों पर उन्होंने हमले किए उससे साफ है कि तमाम सुरक्षा इंतजामों को चुनौती देने के मकसद से वे अपनी मौजूदगी जाहिर करना चाहते हैं। श्रीनगर के ईदगाह इलाके में एक पुलिस अधिकारी पर बिल्कुल नजदीक से उस समय तीन गोलियां दागी गईं, जब वे स्थानीय बच्चों के साथ क्रिकेट खेल रहे थे। दूसरी घटना पुलवामा की है, जिसमें एक प्रवासी मजदूर को गोली मारी गई। इन घटनाओं के बाद स्वाभाविक रूप से सुरक्षाबल सक्रिय और चौकस हो गए हैं। इस तरह के हमलों के पीछे दहशतगर्दों का मकसद महज दहशत फैलाना होता है। क्रिकेट खेलते बच्चों के सामने पुलिस अधिकारी को गोली मारने के पीछे उनका इरादा एक तरह से उस इलाके में और खासकर बच्चों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाना ही रहा होगा।
कुछ महीने पहले कश्मीरी पंडितों को किया गया था टारगेट
प्रवासी मजदूरों को इस तरह लक्ष्य बना कर हमला करने के पीछे भी उनका मकसद जाहिर है। वे बाहर से आकर घाटी में किसी भी तरह का काम कर रहे लोगों में यह भय भर देना चाहते हैं कि वहां रहना उनके लिए खतरे से खाली नहीं है। वे प्रवासियों को प्रदेश से बाहर भगा देना चाहते हैं। कुछ महीने पहले घाटी में लौट रहे कश्मीरी पंडितों पर लक्षित हमले करके भी उन्होंने यही संदेश देने की कोशिश की कि वे घाटी से बाहर चले जाएं।
हिंसा नहीं रुक रहा, तो इस पर नए सिरे से विचार की जरूरत
दरअसल, दहशतगर्द भय पैदा करके अपनी स्वीकार्यता हासिल करना चाहते हैं। इस तरह से वे सरकारी दावों और सुरक्षा बंदोबस्त की धज्जियां उड़ाने का भी प्रयास करते हैं। सवाल है कि सुरक्षा इंतजामों में कहां कमियां रह गई हैं, जिनके चलते आतंकवादियों पर नकेल कसना चुनौती बना हुआ है। पिछले आठ-नौ सालों से घाटी में दहशतगर्दी रोकने के मकसद से सुरक्षा इंतजाम काफी पुख्ता किए गए हैं, लगातार सघन तलाशी अभियान चलाए जा रहे हैं, आतंकी संगठनों को वित्तीय मदद पहुंचाने वालों को सलाखों के पीछे कर दिया गया है, सीमा पार से मिलने वाली मदद पर लगभग पूरी तरह अंकुश है, आए दिन मुठभेड़ में आतंकवादियों के मारे जाने की खबरें भी होती हैं। इसके बावजूद अगर घाटी में हिंसा का सिलसिला नहीं रुक रहा, तो इस पर नए सिरे से विचार की जरूरत है।
सबसे चिंता का विषय है कि आतंकवादी सुरक्षा चक्र के भीतर घुस कर अपनी साजिशों को अंजाम देते और फिर फरार हो जाते हैं। श्रीनगर के ईदगाह में जिस तरह पुलिस अधिकारी को नजदीक से गोली मारी गई और सुरक्षा कर्मियों को चकमा देते हुए निकल भागे, उससे यही साबित होता है कि उनके भीतर सुरक्षाबलों का बहुत खौफ नहीं है।
शायद वे सुरक्षाबलों की गतिविधियों पर नजर रखते और मौका पाकर हमला कर देते हैं। उनके इस तरह हमलों से यह भी साफ है कि उन्हें मिलने वाली वित्तीय मदद और साजो-सामान की पहुंच को पूरी तरह रोका नहीं जा सका है। ऐसे में सुरक्षा संबंधी खामियों का व्यावहारिक मूल्यांकन जरूरी है।