अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई बार ऐसे समीकरण भी देखे जाते हैं, जिन्हें परिस्थितियों की उपज माना जाता है, लेकिन कई बार कुछ ताकतवर देशों की नाहक जिद की वजह से भी नए हालात बनते हैं।
भारत और अमेरिका के बीच जरूरत की वस्तुओं का आयात-निर्यात न केवल आर्थिक मोर्चे पर परस्पर सहयोग का मजबूत आधार रहे हैं, बल्कि यह सामान्य संबंधों में भी सहजता के वाहक रहे। मगर इस बार राष्ट्रपति बनने के बाद डोनाल्ड ट्रंप ने आंतरिक मोर्चे पर कई विवादित फैसले लेने के साथ-साथ अन्य देशों से आयातित वस्तुओं पर शुल्क लगाने की नीति अपना कर उन पर जैसी मनमानी नीतियां थोपने और उन्हें अपने मुताबिक संचालित करने की कोशिश की है, उससे नई समस्या पैदा हुई है।
खासतौर पर भारत को निशाना बना कर अमेरिका ने जो एकतरफा तौर पर बेलगाम शुल्क थोपने की घोषणा की, उससे भारत के सामने नई परिस्थितियों से निपटने की चुनौती खड़ी हुई है। यह स्थिति तब है, जब हाल के वर्षों में भारत ने अमेरिका के साथ हर स्तर पर सहयोगात्मक रुख ही अपनाया।
सवाल है कि अगर अमेरिका बेलगाम शुल्क लगाने की नीति के जरिए भारत के सामने जटिल स्थितियां पैदा करने की कोशिश जानबूझ कर नहीं कर रहा है तो इसके क्या कारण हैं कि वह वस्तुस्थिति और औचित्य की अनदेखी करके भारत पर दबाव बनाना चाहता है। यही नहीं, उसने रूस से तेल खरीदने के सवाल पर भारत पर जुर्माना लगाने तक की घोषणा की।
मौजूदा दौर में बहुध्रुवीय होते विश्व में अगर भारत या कोई भी अन्य देश अपनी जरूरत के मुताबिक आर्थिक मोर्चे पर अमेरिका की सुविधा से इतर कोई उपाय अपनाता है तो वह कैसे गलत हो सकता है। दिलचस्प है कि अमेरिका ने भारत पर शुक्ल थोपने को लेकर जिस तरह का रवैया अपनाया है, उसे सही ठहराने के लिए खुद उसके पास भी उचित तर्क नहीं हैं।
यही वजह है कि उसके पास फिलहाल सिर्फ दबाव बनाने की भाषा है और उसी के तहत वह भारत को संचालित करने की मंशा रखता है। एक संप्रभु और लोकतांत्रिक देश होने के नाते स्वाभाविक ही भारत ने दबाव के आगे कमजोर पड़ने के बजाय इसका विकल्प निकालने की कोशिश शुरू कर दी है।
दरअसल, नई चुनौतियों से निपटने की कोशिश के तहत ही भारत ने रूस और चीन के साथ उच्चस्तरीय वार्ता की राह अपनाई है। इस क्रम में भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर अगले हफ्ते अपने रूसी समकक्ष सर्गेई लावरोह के साथ महत्त्वपूर्ण बातचीत के लिए मास्को जाएंगे, तो दूसरी ओर चीन के विदेश मंत्री वांग यी अगले हफ्ते भारत की यात्रा पर आएंगे।
संभावना यह भी जताई जा रही है कि इस वर्ष के अंत में रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन की भारत यात्रा के विभिन्न पहलुओं को अंतिम रूप दिया जा सकता है। इसके अलावा, ‘ब्रिक्स’ की नीतियों को पहले ही एक मजबूत मोर्चेबंदी की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा था। अब एक बार फिर उसके मुखर होने की उम्मीद जताई जा रही है। जाहिर है, भारत पर दबाव के बरक्स नए समीकरणों की संभावना अमेरिका के लिए शायद चिंता की बात होगी। मगर भारत को यह ध्यान रखने की जरूरत पड़ेगी कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान चीन का भारत के प्रति जो रवैया रहा है, उस पर वह आगे क्या रुख अपनाता है।
फिलहाल अमेरिकी दबाव की नीति के बरक्स अपने हित और सम्मान को सुरक्षित रखने के लिए नई कूटनीतिक मोर्चेबंदी भारत के लिए वक्त की जरूरत है।