जनतंत्र में विपक्षी दलों की भूमिका इसलिए अहम मानी जाती है कि अगर सरकार कोई नीति बनाती, कोई फैसला करती है, तो वे उसमें देश के नागरिकों के हर हिस्से का हित सुनिश्चित करा सकते हैं। इस तरह अपने प्रतिनिधियों के जरिए लोगों को शासन के ढांचे में हिस्सेदारी मिलती है। कायदे से होना यह चाहिए कि सरकार अगर किसी मसले पर कोई नीति बनाना चाहती है, तो उसमें विपक्षी दल भी भागीदारी करें और किसी फैसले, योजना या कार्यक्रम को ज्यादा से ज्यादा समावेशी और लोकतांत्रिक स्वरूप देने में अपनी भूमिका निभाएं।
मगर हाल के वर्षों में यह देखा गया है कि विपक्षी दलों को अगर किसी मुद्दे या सरकार की पहलकदमी से सहमति नहीं होती है तो उनके विरोध का तरीका अकेला दूरी बनाना या बहिष्कार होता है। जबकि अगर सरकार या किसी महकमे की ओर से बुलाई गई बैठक में सभी दलों के प्रतिनिधि हिस्सा लें तो किसी नीतिगत फैसले या नई योजना में अलग-अलग पक्षों के विचार शामिल किए जा सकते हैं और इस तरह उसके लाभ का दायरा और बड़ा हो सकता है।
सवाल है कि अमूमन हर मसले पर किसी बैठक से दूर रहने का रवैया अपना कर विपक्षी दल जनता का कितना भला कर पा रहे हैं! दरअसल, दिल्ली में शनिवार को प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में नीति आयोग की आठवीं बैठक बुलाई गई थी। इसमें शामिल होकर निर्धारित मुद्दों पर अपना पक्ष रखने के लिए सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों और केंद्रशासित प्रदेशों के उपराज्यपालों को बुलाया गया था।
मगर इस बैठक में विभिन्न कारणों से ग्यारह राज्यों के मुख्यमंत्री नहीं आए। जिन राज्यों ने बैठक में भागीदारी नहीं की, एक को छोड़ कर वहां अलग-अलग विपक्षी दलों की सरकारें हैं। संभव है कि राजनीतिक मोर्चे पर सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी या उसकी कार्यशैली से इन पार्टियों का विरोध हो। पर सवाल है कि नीति आयोग में जिन मुद्दों पर चर्चा हुई, क्या उसका सरोकार आम जनता से नहीं था! गौरतलब है कि नीति आयोग की बैठक में कई अहम विषयों पर चर्चा हुई, जिनमें देश को 2047 तक विकसित बनाने, बुनियादी ढांचा और निवेश, अनुपालन का बोझ कम करना, महिला सशक्तिकरण, स्वास्थ्य और पोषण, कौशल विकास, क्षेत्र के विकास और सामाजिक बुनियादी ढांचे के लिए गति शक्ति जैसे कई मुद्दे शामिल हैं।
जाहिर है, इन मसलों पर बैठक में चर्चा में आठ राज्यों की जनता की कोई नुमाइंदगी नहीं मिली। यह सिर्फ एक मामला है, जिसमें विपक्षी दलों ने शामिल होकर अपने विचारों से संबंधित नीतियों के दायरे को विस्तार देने के बजाय दूर रहने का रास्ता चुना। एक रिवायत जैसी हो गई है कि संसद में किसी मुद्दे या विधेयक पर चर्चा में शामिल होकर उसमें जनता का पक्ष रखने के बजाय विपक्षी दल बाहर रहने का रास्ता चुनते हैं।
इससे आमतौर पर सरकार का रास्ता ही आसान हो जाता है कि अगर किसी नीतिगत फैसले या विधेयक में आम जनता का खयाल कम रखा गया है, तो भी वह बिना किसी हस्तक्षेप के पारित हो जाता है। ऐसा रुख अख्तियार करके विपक्षी दल किसका भला कर रहे हैं? सत्ताधारी पार्टी या सरकार के किसी फैसले में विपक्षी दलों के सांसदों-विधायकों के जरिए अपने पक्ष की नुमाइंदगी की उम्मीद में बैठी जनता क्या करे? यह ध्यान रखने की जरूरत है कि देश के लोकतांत्रिक ढांचे में जनता को प्रतिनिधित्व सरकार के साथ-साथ विपक्षी दलों के जरिए भी मिलता है। अगर जनहित से संबंधित किसी मुद्दे पर सभी पार्टियां भागीदारी करेंगी तो उसे ज्यादा समावेशी स्वरूप दे पाना संभव हो सकेगा। हर मुद्दे पर दूरी बरतने का रास्ता लोकतांत्रिक रवैया नहीं माना जा सकता।