पंजाब में आम आदमी पार्टी को सत्ता में आए करीब सात महीने हो गए हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि अभी तक सरकार अपने कामकाज की प्रक्रिया में संतुलन नहीं बिठा पाई है। खासतौर पर पिछले कुछ समय से राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच जैसी खींचतान की खबरें आ रही हैं, उससे साफ है कि सत्ता के अलग-अलग स्तंभों के बीच अभी सामंजस्य नहीं हो पाया है।

मसलन, गुरुवार को पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित पर राज्य सरकार के कामकाज में लगातार हस्तक्षेप करने का आरोप लगाया। यह तल्खी कार्यों में नाहक दखल से आगे इस ओर जाता दिख रहा है कि उन्होंने राज्यपाल के किसी अन्य केंद्र से संचालित होने के बारे में भी सवाल उठा दिया। गौरतलब है कि पहले राज्य विधानसभा का सत्र बुलाने को लेकर राज्यपाल पर अवरोध पैदा करने का आरोप लगा था। उसके बाद बाबा फरीद यूनिवर्सिटी आफ हेल्थ साइंसेज और अब पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति निरस्त करने के आदेश को लेकर मुख्यमंत्री ने राज्यपाल के फैसले को कठघरे में खड़ा किया।

सवाल यह है कि जिन कार्यों में राज्यपाल को दखल देने या किसी फैसलों को निरस्त की जरूरत पड़ी, क्या वे राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं? वहीं राज्यपाल के आदेश अगर कानूनसम्मत हैं तो राज्य सरकार को इससे क्यों आपत्ति हो रही है! साथ ही राज्य सरकार का कोई फैसले में दखल अगर तकनीकी तौर पर राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में है तो ऐसे निर्णय क्यों लिए जाते हैं जो निरस्त हो जा रहे हैं।

हालांकि मुख्यमंत्री के मुताबिक, कुलपति की नियुक्ति में मुख्यमंत्री और राज्यपाल की कोई भूमिका नहीं होती। इसके लिए उन्होंने अलग-अलग विश्वविद्यालयों में निर्धारित नियम-कायदों का हवाला दिया। अगर यह तथ्य तकनीकी व्यवस्था है तब निश्चित तौर पर राज्यपाल के आदेश को लेकर सवाल उठेंगे। लेकिन ऐसा लगता है कि कुछ विवाद नाहक ही तूल पकड़ लेते हैं, जबकि आपसी बातचीत के जरिए उन्हें सुलझाया जा सकता है। इस मसले पर भगवंत मान ने राज्यपाल के हस्तक्षेप को गलत और असंवैधानिक बताते हुए इसके पीछे किसी अन्य का हाथ होने की आशंका जताई। जाहिर है, राज्यपाल और सरकार के बीच खींचतान अब नए सिरों की ओर बढ़ने लगी है।

यह छिपा नहीं है कि दिल्ली में भी आम आदमी पार्टी की सरकार है, जहां राज्यपाल के साथ अनेक मुद्दों पर टकराव होते रहे हैं। अब पंजाब में भी सरकारी कामकाज में राज्यपाल के दखल को लेकर विवाद सामने आने लगे हैं। सवाल है कि सत्ता के ढांचे में होने के बावजूद दोनों पक्षों को क्या अपने कार्यक्षेत्र और सीमाओं के बारे में स्पष्टता नहीं है?

एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में राज्यपाल और मुख्यमंत्री या सरकार के बीच अधिकारों का बंटवारा किया गया है और उसी के मुताबिक दोनों को शासन में अपनी-अपनी भूमिकाएं निभानी होती हैं। लेकिन यह समझना मुश्किल है कि अक्सर ऐसे हालात क्यों पैदा हो रहे हैं जब कोई राज्य सरकार यह आरोप लगाती है कि राज्यपाल शासन के कार्यों में नाहक ही दखल दे रहे हैं। फिर किसी राज्यपाल को सरकार के फैसलों पर सवाल उठाने या उन्हें बदलने का निर्देश देने की नौबत क्यों आती है? या फिर क्या दोनों पक्षों की ओर से ऐसा गैरजरूरी होने पर भी किया जाता है? यह ध्यान रखने की जरूरत है कि पंजाब में उभरते टकराव को खत्म कर राज्यपाल और सरकार के बीच बेहतर तालमेल कायम नहीं हुआ तो इसका असर जनकल्याण के कार्यों पर भी पड़ना शुरू हो सकता है।