पिछले कुछ समय से अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जिस तरह अलग-अलग देशों पर शुल्क लगाने की बात कर रहे थे, उसे कई अर्थों में दबाव की रणनीति माना जा रहा था। मगर इस मसले पर अब उन्होंने जिस तरह के फैसले लेने शुरू कर दिए हैं, उससे साफ है कि मनमाने तरीके से शुल्क लगाने के फैसले का इस्तेमाल किसी देश की नीति को प्रभावित करने के लिए एक औजार के तौर पर किया जा रहा है। इस क्रम में ट्रंप बीते दिनों बार-बार यह कहते रहे कि वे भारत से आयात किए जाने वाले उत्पादों पर भारी शुल्क लगाएंगे। मगर उनके बयानों में जैसे उतार-चढ़ाव देखे गए, उसके मद्देनजर यह उम्मीद की जा रही थी कि वे अपनी जिद पर विचार करेंगे और भारत को लेकर उदार रुख अपनाएंगे।
खासतौर पर इसलिए भी कि बीते कुछ वर्षों के दौरान भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय संबंधों के नए दरवाजे खुले थे और थोड़ी सक्रियता बढ़ी थी। गौरतलब है कि व्यापार वार्ता के संदर्भ में अमेरिका और भारत के बीच जारी बातचीत में कुछ गतिरोध के संकेत सामने आने के बाद डोनाल्ड ट्रंप ने भारत से आयात की जाने वाली वस्तुओं पर एक अगस्त से पच्चीस फीसद शुल्क और रूस से तेल खरीदने पर जुर्माना लगाने की घोषणा कर दी।
ट्रंप का फैसला कोई अचानक नहीं
हालांकि यह कोई अचानक हुआ फैसला नहीं लगता है और ट्रंप ने इस बार सत्ता में आने के बाद से ही आयात पर शुल्क लगाने की घोषणाओं पर कुछ जगहों पर अमल करना शुरू कर दिया है। मसलन, कनाडा पर ट्रंप ने पैंतीस फीसद शुल्क लगाने की घोषणा कर दी थी, जबकि उस समय व्यापार वार्ता जारी थी और एक समझौता होने की उम्मीद थी। भारत पर भी पच्चीस फीसद शुल्क तब लगाने की बात कही गई, जब अमेरिका के साथ द्विपक्षीय अंतरिम व्यापार समझौते को लेकर अंतिम दौर की कोशिशें जारी थीं।
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उल्लेखनीय है कि अमेरिका के वार्ताकारों का एक समूह पच्चीस अगस्त को भारत के दौरे पर आने वाला है जो प्रस्तावित व्यापार समझौते पर बातचीत के अगले दौर में हिस्सा लेगा। सवाल है कि व्यापार वार्ता के प्रयास जारी रहने और उसके निष्कर्ष तक पहुंचने से पहले ही अमेरिकी राष्ट्रपति को शुल्क लगाने की घोषणा करने की जल्दबाजी करने की जरूरत क्यों लगी। क्या इस फैसले को व्यापार वार्ता में अपने हित में नीतिगत फैसले लेने के लिए दबाव बनाने की रणनीति नहीं माना जाएगा?
ट्रंप की ताजा घोषणा से कुछ अन्य देशों के मुकाबले भारत पर कम असर पड़ेगा
एक दलील यह दी गई है कि भारत का शुल्क बहुत ज्यादा रहा है, इसलिए अमेरिका ने इसके साथ अपेक्षाकृत कम व्यापार किया है। अगर ऐसा है तो इस मसले पर पहले बातचीत के जरिए दोनों पक्षों के बीच सहमति के बिंदुओं तक पहुंचने की जरूरत थी, न कि सीधे भारी शुल्क लगाने की घोषणा के जरिए दबाव बनाने की। फिर इसी बीच पाकिस्तान के साथ मिल कर अमेरिका के ‘तेल भंडारों को विकसित करने’ के सौदे की खबर के क्या मायने हो सकते हैं?
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भारत ने हाल के वर्षों में अपने निर्यात के पक्ष को जिस तरह मजबूत किया है, उसमें इस तरह के अमेरिकी दबाव क्या व्यापार में सहयोग के बजाय एक प्रतिद्वंद्विता की बिसात बिछाने की कोशिश नहीं हैं? यों सवाल यह भी है कि क्या भारत की ओर से समय रहते इस मसले को सुलझाने की कोशिश नहीं की गई या फिर जरूरी रणनीति को तवज्जो नहीं दिया गया। हालांकि माना जा रहा है कि ट्रंप की ताजा घोषणा से कुछ अन्य देशों के मुकाबले भारत पर कम असर पड़ेगा, लेकिन इस एकतरफा फैसले के बाद द्विपक्षीय संबंधों में थोड़ी शिथिलता जरूर आ सकती है।