जिस दौर में अमूमन सभी मोर्चों पर मौका मिलने पर लड़कियां अपने बरक्स या समांतर खड़े लड़कों से खुद को बराबर या बेहतर साबित कर रही हैं, उसमें ऐसी खबर निराशा और दुख से भर देती है कि एक व्यक्ति ने बेटे की चाह में अपनी जुड़वां नवजात बेटियों की हत्या कर दी। इक्कीसवीं सदी का सफर तय करते आधुनिक मूल्यों वाले देश में यह हैरान करने वली घटना लगती है, मगर आज भी ऐसे लोग हैं, जो लड़कियों के खिलाफ इस हद तक संकीर्ण सोच और रवैया रखते हैं।

खबर के मुताबिक, बाहरी दिल्ली में रहने वाले एक व्यक्ति ने अपनी तीन दिन की जुड़वां बेटियों की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी, क्योंकि वह बेटा चाहता था। यह कोई दूरदराज के इलाके की नहीं, बल्कि देश की राजधानी दिल्ली की घटना है, जहां माना जाता है कि समाज अपेक्षया आधुनिक मूल्यों के बीच जीता है और लैंगिक बराबरी के साथ-साथ बेटियों की सुरक्षा और उन्हें समान जीवन-स्थितियां मुहैया कराने को लेकर सरकार की ओर से भी अक्सर जागरूकता कार्यक्रम चलाए जाते हैं।

आज तकनीक की दुनिया इतनी विस्तृत हो चुकी है कि दूरदराज के इलाके में बैठा व्यक्ति भी यह देख-समझ सकता है कि समाज में निचले स्तर से लेकर उच्च स्तर की पढ़ाई-लिखाई या बेहतर पदों पर नौकरी हासिल करने के मामले में लड़कियां किसी भी तरह से लड़कों से कम नहीं हैं। यों एक सभ्य समाज में समानता के दृष्टिकोण के लिए इस तरह के उदाहरणों की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए, लेकिन जड़ मानसिकता वाले व्यक्ति के लिए ऐसे उदाहरण काम के हो सकते हैं।

समाज में लैंगिक बराबरी के हक में लड़ाई के लंबे दौर का हासिल यह रहा है कि आज हर स्तर पर महिलाएं पुरुषों के साथ समांतर खड़ी हैं और जहां भी मौका मिल रहा है, वहां वे अपनी क्षमताएं साबित कर रही हैं। इसके बावजूद अगर बेटे की इच्छा रखने की वजह से बेटी की हत्या की खबर आती है तो यह एक समाज और व्यवस्था की नाकामी का ही सबूत है। देश की सरकारों ने बेटियों को बचाने और पढ़ाने के नारे तो खूब दिए, मगर जमीनी स्तर पर पितृसत्तात्मक दुराग्रहों को खत्म करने को लेकर इतनी गंभीरता नहीं बरती कि सुरक्षा और समानता बेटियों के लिए सहज जीवन का हिस्सा हो।