उत्तर प्रदेश सरकार पिछले कुछ वर्षों से कानून का शासन स्थापित करने के दावे खूब बढ़-चढ़ कर करती रही है। मगर जमीन पर वे दावे खोखले ही निकलते रहे हैं! अपराध के खिलाफ उसकी कार्रवाई की वास्तविकता यह भी है कि नियम-कायदों के उल्लंघन की प्रकृति होती कुछ और है, लेकिन उसे कानूनी दस्तावेजों में किसी और रूप में दर्ज किया जाता है।

ऐसे ही एक मामले पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश पुलिस के उस रवैये के खिलाफ सख्त रुख अख्तियार किया, जिसमें दीवानी विवादों को फौजदारी मामलों में बदला जा रहा है। अदालत की पीठ ने इसे ‘कानून के शासन का पूरी तरह पतन’ करार देते हुए कहा कि यह प्रथा गलत है और इसे तुरंत रोका जाना चाहिए।

कानून-व्यवस्था के नाम पर की जा रही मनमानी

अदालत की यह टिप्पणी यह बताने के लिए काफी है कि उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से आए दिन कानून का शासन लागू करने को लेकर जिस तरह के दावे किए जाते रहे हैं, उस पर वास्तव में अमल करने के मामले में पुलिस किस तरह मनमानी करती है और विवादों को कैसा रूप दिया जा रहा है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि कानून-व्यवस्था के नाम पर की जाने वाली ऐसी मनमानी के बूते क्या किया जा रहा है और क्या दर्शाया जा रहा है।

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केवल पैसा न लौटाने को क्या ऐसे कानूनी दायरे में रखा जा सकता है, जिसे अपराध घोषित कर दिया जाए और उसी मुताबिक कानूनी कार्रवाई की जाए? अदालत ने इस पर तल्ख रुख अख्तियार करते हुए कहा कि उत्तर प्रदेश में हर रोज दीवानी मामलों को फौजदारी के मामलों में बदला जा रहा है। यह बेतुका है, सिर्फ लंबा वक्त लगने की दलील देकर दीवानी मामलों में प्राथमिकी दर्ज कर दी जाएगी और आपराधिक कानून लगा दिया जाएगा।

खुद पुलिस महकमा नियमों को ताक पर रख रहा

सवाल है कि क्या इसी तरह का रवैया अपना कर राज्य सरकार अपराधों पर काबू पाने का दावा कर रही है। अगर खुद पुलिस महकमे और उसके अधिकारी नियमों को इस तरह ताक पर रख रहे हैं, तो आपराधिक मामलों में उनकी कार्रवाइयों को कितना विश्वसनीय माना जाएगा?