देश की राजधानी होने के नाते उम्मीद की जाती है कि दिल्ली में व्यवस्था के मामले में इस हद तक अनदेखी नहीं बरती जाएगी कि वह एक जटिल समस्या बन जाए। मगर इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि दिल्ली फिलहाल जिस सबसे बड़ी समस्या से जूझ रही है, वह वायु प्रदूषण है। यहां एक ओर सरकार इससे निपटने के लिए कई तरह के उपायों के साथ-साथ सख्ती के नियम-कायदे लागू करती है, दूसरी ओर इसे गंभीर बनाने वाले कारकों को लेकर हद दरजे की लापरवाही बरतती है।

पिछले कई वर्षों से जाड़े के मौसम की शुरूआत के साथ ही दिल्ली की वायु गुणवत्ता बेहद गंभीर श्रेणी में रहती है। इसे रोकने के लिए कई गतिविधियों पर पाबंदी लगाई जाती है, लेकिन अपशिष्ट प्रबंधन के मामले में हालत इस कदर दयनीय है कि यह गंभीर समस्या बन चुकी है। इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार को सख्त फटकार लगाई है। अदालत ने दिल्ली नगर निगम के उस हलफनामे पर हैरानी जताई है, जिसमें बताया गया कि इसके निपटान में दिसंबर, 2027 तक का समय लग सकता है।

हर रोज लगभग तीन हजार टन ठोस अपशिष्ट का नहीं हो पाता निस्तारण

गौरतलब है कि दिल्ली में हर रोज लगभग तीन हजार टन ठोस अपशिष्ट का निस्तारण नहीं हो पाता है और इसे भलस्वा और गाजीपुर के ‘लैंडफिल साइट’ पर जमा कर दिया जाता है। वे जगहें किसी पहाड़ की तरह दिखाई देती हैं, मगर वे दरअसल कचरे के ढेर हैं। सवाल है कि अगर वाहनों से निकलने वाला धुआं और निर्माण गतिविधियां दिल्ली की वायु गुणवत्ता को बेहद खराब श्रेणी में पहुंचाने के लिए जिम्मेदार हैं और प्रदूषण की रोकथाम के लिए उन पर पाबंदी लगाई जा सकती है, तो रोजाना तीन हजार टन ठोस कचरे के अनुपचारित रह जाने की लाचारी क्यों बनी हुई है।

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इस मात्रा के हिसाब से हर रोज कितना कचरा जमा हो रहा होगा और उससे प्रदूषण का स्वरूप और किस हद तक बिगड़ता होगा, इसका बस अंदाजा ही लगाया जा सकता है। क्या यह सरकार और संबंधित महकमों के दोहरे चेहरे का सबूत नहीं है, जिसमें प्रदूषण के गहराते संकट पर फिक्र तो जताई जाती है, लेकिन उसके कारकों के प्रति आंखें मूंद ली जाती हैं?