किसी भी घटना से अगर हिंसा या अराजकता फैलने की आशंका हो तो सरकारों को अपनी ओर से तत्काल सक्रिय होकर हालात पर काबू पाने के लिए हर संभव कार्रवाई करनी चाहिए। मगर अफसोस की बात यह है कि ऐसा सुनिश्चित करने के लिए अक्सर शीर्ष अदालत को सख्त रुख अख्तियार करना पड़ता है।

गौरतलब है कि हरियाणा के नूंह में एक धार्मिक जुलूस के दौरान हुई हिंसा की प्रतिक्रिया में कुछ संगठनों ने विरोध प्रदर्शन करने की घोषणा की थी। एक लोकतांत्रिक देश में विरोध जाहिर करना एक बात है, लेकिन अगर उसका तरीका ऐसा हो, जिससे हिंसा के और ज्यादा भड़कने की आशंका हो तब उसे समय पर रोकने और नियंत्रित करने की जिम्मेदारी सरकार की होती है।

अदालत ने कहा- समुदाय के खिलाफ नफरत भरे भाषण को रोकें सरकारें

बुधवार को एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने विरोध प्रदर्शनों पर रोक तो नहीं लगाई, लेकिन इस मसले पर केंद्र और संबंधित राज्य सरकारों को हिदायत दी। अदालत ने उम्मीद जताई कि पुलिस अधिकारियों सहित राज्य सरकारें यह सुनिश्चित करेंगी कि किसी भी समुदाय के खिलाफ नफरत भरे भाषण न हों, कोई हिंसा या संपत्तियों को नुकसान न करे और जहां भी जरूरत पड़े, पर्याप्त पुलिस बल तैनात किए जाएं।

जाहिर है, शीर्ष अदालत ने हालात की संवेदनशीलता के मद्देनजर ही सरकारों को उनकी जिम्मेदारी की याद दिलाई। लेकिन अगर इस दायित्व को पहले याद रखा गया होता तो शायद नूंह में अप्रिय स्थितियों से बचा जा सकता था। गौरतलब है कि पिछले साल अक्तूबर और इस वर्ष अप्रैल में भी सुप्रीम कोर्ट साफ शब्दों में यह कह चुका है कि नफरत फैलाने वाले भाषणों के मामले में स्वत: संज्ञान लेकर प्राथमिकी दर्ज करना होगा, भले ही ऐसे भाषणों के खिलाफ किसी ने कोई शिकायत दर्ज न कराई हो।

अदालत ने यह भी स्पष्ट किया था कि नफरत भरे भाषण गंभीर अपराध हैं, जो देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने के साथ-साथ हमारे गणतंत्र के दिल और लोगों की गरिमा को प्रभावित करते हैं। हालांकि ये ऐसी बुनियादी बातें हैं, जिसका ध्यान सभी आम लोगों और खासतौर पर सरकारों को हर वक्त रखना चाहिए। यह छिपा नहीं है कि धर्म या समुदाय के हित का झंडा उठा कर कई बार आम लोगों को संबोधित करते हुए सार्वजनिक रूप से ऐसी बातें कहीं जाती हैं, जिससे भावनाएं भड़कती हैं और उसके बाद कोई छोटी-सी चिंगारी भी हिंसा की आग को फैला दे सकती है।

सवाल है कि अगर व्यापक पुलिस और खुफिया तंत्र के साथ हर जगह चौकस रहने का दावा करने वाली सरकारें अराजक गतिविधियों, नफरत फैलाने की कोशिश करने वाले असामाजिक तत्त्वों पर बिना देरी किए लगाम लगा दें, तो क्या व्यापक हिंसा को समय रहते नहीं रोका जा सकता है! अफसोस है कि कई बार खुफिया सूचनाओं के बावजूद सरकार अपेक्षित स्तर तक गंभीर नहीं होती हैं और इसका नतीजा त्रासद होता है। जबकि इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट यहां तक कह चुका है कि नफरत भरे भाषण इसलिए भी नहीं रुक रहे हैं, क्योंकि सरकार कमजोर और शक्तिहीन है!

शायद किसी भी सरकार को अपने बारे में इस तरह की टिप्पणी अच्छी नहीं लगेगी। लेकिन आए दिन ऐसी खबरें आती रहती हैं कि धर्म के नाम पर होने वाली सभाओं या जुलूसों आदि में खुलेआम भावनाएं भड़काने वाली बातें कही जाती हैं, उसके नतीजे में कई बार हिंसा फैलने की आशंका बनती है, लेकिन पुलिस की ओर से तब तक इसकी अनदेखी की जाती है, जब तक मामला तूल न पकड़ ले या हाथ से न निकल जाए। विडंबना यह है कि अदालत के निर्देश और कानून लागू करने को लेकर सरकारों को खुद सक्रिय रहना चाहिए, मगर उसके लिए अदालतों को हिदायत देनी पड़ती है।