महिला सुरक्षा से जुड़े मामलों में फैसला देते वक्त अदालतों से घटना, तथ्यों और प्रमाणों पर संवेदनशील तरीके से विचार करने की अपेक्षा की जाती है। मगर विचित्र है कि कई बार निचली अदालतें ऐसे मामलों में पूर्वाग्रहपूर्ण निर्णय सुना देती हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय का एक नाबालिग के साथ यौन दुर्व्यवहार के मामले में आया फैसला उसी का ताजा उदाहरण है। अदालत ने इस संबंध में फैसला दिया कि संबंधित लड़की के साथ जो किया गया, उसे बलात्कार नहीं कहा जा सकता। उचित ही, स्वत: संज्ञान लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले पर रोक लगा दी है।

शीर्ष अदालत ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस फैसले पर खेद प्रकट करते हुए इसमें संवेदनशीलता की कमी रेखांकित की है और न्यायाधीश की टिप्पणियों को असंवेदनशील एवं अमानवीय दृष्टिकोण वाला बताया है। यह बात किसी को गले नहीं उतर पा रही कि जब पाक्सो कानून में स्पष्ट रूप से किसी बच्चे के साथ गलत हरकतों को आपराधिक कृत्य माना गया है, तब कैसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय के संबंधित न्यायाधीश को न्यायिक विवेचन करते समय यह गंभीर दोष नहीं जान पड़ा।

सुनवाई के चार महीने बाद तक फैसला रखा गया था सुरक्षित

महिलाओं के यौन उत्पीड़न से संबंधित कानूनों में तो उन्हें घूरने, गलत इशारे करने, पीछा करने आदि को भी आपराधिक कृत्य माना गया है। फिर उस लड़की के मामले में हर पहलू पर विचार क्यों नहीं किया गया!

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यह ठीक है कि कई बार अदालतों के सामने कुछ मामलों में कानून के बारीक बिंदुओं की व्याख्या करने में अड़चन आ जाती है, मगर यह ऐसा कोई मामला नहीं था, जिसमें कोई दिक्कत पेश आई होगी। फिर, अगर कहीं कोई संशय था, तो सुनवाई के बाद चार महीने तक फैसले को सुरक्षित रखा गया था, उस बीच उस पर विचार-विमर्श किया जा सकता था। महिलाओं के सम्मान और गरिमा के प्रति सर्वोच्च न्यायालय संवेदनशील रहा है।

सर्वोच्च न्यायालय ने सुझाए थे सम्मानजनक शब्द

इसका बड़ा उदाहरण पिछले वर्ष देखा गया, जब तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश ने कुछ शब्दों को महिला सम्मान के विरुद्ध मानते हुए उनकी जगह सम्मानजनक शब्द सुझाए थे। कुछ अशोभन कहे जाने वाले शब्द, जो प्राय: महिलाओं से जुड़े मामलों में लंबे समय से अदालतों में प्रयुक्त होते आ रहे थे, उन्हें बदल दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे शब्दों की सूची बना कर देश की सभी अदालतों में प्रसारित किया था। इसके बावजूद अगर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के संबंधित न्यायाधीश ने महिला अस्मिता से जुड़े अहम पक्षों को सरसरी ढंग से देखने का प्रयास किया, तो उस पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं।

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इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ मामलों में पाक्सो और महिला सुरक्षा से जुड़े कानूनों का दुरुपयोग देखा गया है, मगर इसका अर्थ यह नहीं कि इससे किसी को हर महिला के साथ हुए दुर्व्यवहार और यौन शोषण को असंवेदनशील तरीके से देखने की छूट मिल जाती है। पहले ही महिला यौन उत्पीड़न के मामलों में शिकायतें दर्ज कराने को लेकर चुप्पी साध जाने या कदम वापस खींच लेने को लेकर चिंता जताई जाती रही है।

फिर, जांच में पूर्वाग्रह, दबाव, साठगांठ आदि के चलते पर्याप्त सबूत न मिल पाने के कारण दोष सिद्धि की दर बहुत कम रहना भी चिंता का विषय है। ऐसे में अगर अदालतें खुद अपने फैसलों में संकुचित दृष्टिकोण दिखाएंगी, तो ऐसे मामलों पर लगाम लगने का भरोसा भला कैसे बन सकेगा।