समाज के कुछ कमजोर तबकों के लोगों को मैला उठाने या सीवर साफ करने के काम से मुक्ति नहीं मिल सकी है, तो यह हर तरह से मानवीय गरिमा के खिलाफ है। यह दुखद है कि देश के कुछ हिस्से में आज भी परंपरागत तरीके से ये काम कराए जा रहे हैं। इसे रोकने के लिए संसद काफी पहले कानून बना चुकी है। मगर वर्ष 2018 में हुए सर्वेक्षण में पाया गया था कि अट्ठावन हजार से अधिक लोग इस कार्य में संलग्न हैं। यह अमानवीय ही है कि ये लोग शुष्क शौचालयों की सफाई सामान्य तरीके से या हाथ से करने पर मजबूर हैं।

सीवर में उतर कर परंपरागत तरीके सफाई करने वाले कर्मियों की दम घुटने से मौत की खबरें अक्सर सामने आती रहती हैं। इनमें ज्यादातर वे लोग होते हैं, जिनके पास बचाव के साधन नहीं होते। इस लिहाज से देखें तो दिल्ली सहित छह महानगरों में हाथ से सीवर की सफाई या मैला उठाने पर पूरी तरह रोक लगाने का शीर्ष न्यायालय का निर्णय बेहद अहम और जरूरी है। यह निराशाजनक है कि तमाम पाबंदियों और स्वच्छता अभियानों के बावजूद देश की तस्वीर नहीं बदली है।

अभी भी परंपरागत तरीकों से कराई जाती है सफाई

यह हाल तब है, जब पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और सभी राज्यों को सुनिश्चित करने को कहा था कि हाथ से मैला साफ करने का काम पूरी तरह समाप्त हो। इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि कानूनी स्थिति के समांतर हकीकत यह है कि आज भी छोटे या बड़े शहरों में सीवर की सफाई कई बार परंपरागत तरीकों से कराई जाती है। सीवर में उतर कर सफाई करने वाले लोगों को शायद ही कभी सुरक्षा उपायों से लैस किया जाता है।

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नतीजतन, सीवर में उतर कर सफाई करने वाले मजदूरों की दम घुट कर मौत की खबरें आज भी आती रहती हैं। हैरानी की बात यह है कि जिस दौर में बड़े और भारी कामों के लिए अत्याधुनिक तकनीक से तैयार मशीनों का सहारा लिया जाने लगा है, वहीं सीवर सफाई जैसे काम आज भी कई जगह पर हाथ से कराए जाते हैं। विकल्प के अभाव में इस काम को करने वाले लोगों के प्रति सामाजिक व्यवहार कोई छिपा तथ्य नहीं है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की सख्ती एक जरूरी हस्तक्षेप है। मगर यह देखने की बात होगी कि जमीन पर इसका अमल किस हद तक होता है।