हालांकि एक सभ्य समाज में बेटे और बेटी के अधिकारों में अंतर का सवाल नहीं उठना चाहिए, लेकिन कई वजहों से जड़ जमा चुके पूर्वाग्रहों की वजह से आमतौर पर बेटियों को कई स्तर पर समझौता करना पड़ता है। ऐसी स्थिति की मुख्य वजह पारंपरिक धारणाओं के प्रति ज्यादातर लोगों की सहजता होती है, जिसमें बेटियां अपने हक के प्रति उदासीन रहती हैं या फिर वंचित रह जाती हैं। फिर किन्हीं कारणों से माता-पिता के अलग हो जाने की स्थिति में भी बेटी की पढ़ाई-लिखाई सिर्फ खर्च पूरा नहीं हो पाने की वजह से बाधित हो सकती है।

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक मामले की सुनवाई के बाद इसी मसले पर एक तरह से स्थिति स्पष्ट की है। अदालत ने छब्बीस वर्ष से अलग रह रहे दंपति के मामले में कहा कि बेटियों को अपने अभिभावकों से शिक्षा संबंधी खर्च मांगने का पूरा अधिकार है और जरूरत पड़ने पर माता-पिता को कानूनी तौर पर बाध्य किया जा सकता है कि वे बेटी की पढ़ाई-लिखाई के लिए जरूरी धन दें। बेटी को ये पैसे रखने का अधिकार है और यह रकम उसे अपनी मां या पिता को लौटाने की जरूरत नहीं है।

दरअसल, ऐसे मामले अक्सर देखे जाते रहे हैं जिनमें परिवारों में अगर संपत्ति के बंटवारे की स्थिति आती है तो जितने हिस्से पर बेटों का सहज हक माना जाता है, उतने के लिए बेटियों को अलग से प्रयास करना पड़ता है। विडंबना यह है कि अगर किसी परिवार में माता-पिता को शिक्षा पर खर्च के मामले में बेटी या बेटे में से किसी एक को ही चुनने का विकल्प हो तो वे आमतौर पर बेटे को प्राथमिकता देते हैं।

अगर कभी बेटी को उनका हिस्सा दिया जाता है तो उसे समाज में विशेष रूप से दी गई सुविधा की दृष्टि से देखा जाता है। जबकि सामाजिक बराबरी के सिद्धांत से लेकर कानूनी स्थिति तक के लिहाज से बेटियों को उनके माता-पिता की संपत्ति में बराबर का हिस्सा होना चाहिए और इसे लेकर लोगों को सहज रहना चाहिए। खासतौर पर पालन-पोषण और पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ अन्य जरूरी खर्च के मामले में माता-पिता की आर्थिक सीमा में बेटियों को उनसे अपना खर्च लेने का अधिकार होना चाहिए। इस लिहाज से देखें तो बेटियों के हक के संबंध में सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला स्वागतयोग्य है।