अदालती फैसलों और निर्देशों को नजरअंदाज करना जैसे सत्तासीन लोगों की आदत हो गई है। अक्सर वे न्यायालय के निर्देशों पर टालमटोल करते देखे जाते हैं। महाराष्ट्र विधानसभा अध्यक्ष का रवैया भी कुछ वैसा ही है। इस पर नाराजगी जताते हुए सर्वोच्च न्यायालय को कहना पड़ा कि विधानसभा अध्यक्ष इस तरह न्यायालय के निर्देशों को नजरअंदाज और निष्प्रभावी करने की कोशिश नहीं कर सकते।
न्यायालय ने स्पीकर को हफ्ते भर के भीतर समय सीमा तय करने को कहा
न्यायालय ने विधानसभा अध्यक्ष को एक हफ्ते के भीतर समय-सीमा तय करने को कहा है। दरअसल, महाराष्ट्र में शिवसेना से अलग होकर छप्पन विधायकों ने भाजपा से हाथ मिला लिया और एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में सरकार बन गई। इस पर शिवसेना ने विधानसभा अध्यक्ष से गुहार लगाई कि वे अलग हुए विधायकों को अयोग्य घोषित करें।
अर्जियों पर ध्यान नहीं देने पर मामला सर्वोच्च न्यायालय गया था
इस संबंध में चौंतीस अर्जियां लगाई गई हैं, मगर विधानसभा अध्यक्ष ने उन पर ध्यान नहीं दिया। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय से अपील की गई कि वह विधानसभा अध्यक्ष को विधायकों की अयोग्यता संबंधी अर्जियों पर फैसला सुनाने का आदेश दे। मई में जब सर्वोच्च न्यायालय ने उद्धव ठाकरे सरकार गिराने के मामले में सुनवाई करते हुए फैसला दिया, तभी विधानसभा अध्यक्ष को भी निर्देश दिया था कि वे विधायकों की अयोग्यता संबंधी मामले में फैसला सुनाएं।
उस निर्देश के बाद करीब पांच महीने बीत गए, मगर विधानसभा अध्यक्ष यही कहते रहे हैं कि समय आने पर वे इस मामले में फैसला सुनाएंगे। अब सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि विधानसभा अध्यक्ष ऐसा कह कर नहीं टाल सकते। यह फैसला अगले विधानसभा चुनाव से पहले हो जाना चाहिए, नहीं तो फिर उसका कोई संवैधानिक महत्त्व नहीं रह जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय ने हालांकि यह भी कहा कि वह विधानसभा अध्यक्ष के संवैधानिक अधिकार क्षेत्र में दखल नहीं दे रहा, मगर जहां कहीं संवैधानिक मूल्यों का हनन होता है, वहां उसे दखल देना भी पड़ता है।
यह सर्वोच्च न्यायालय की कठोर टिप्पणी है। उम्मीद की जाती है कि महाराष्ट्र विधानसभा अध्यक्ष इसे गंभीरता से लेंगे। मगर महाराष्ट्र में जिस तरह के राजनीतिक समीकरण बने हुए हैं, उसमें विधानसभा अध्यक्ष किस हद तक संवैधानिक मूल्यों की रक्षा कर पाएंगे, देखने की बात है। मामला केवल शिंदे के साथ गए विधायकों की अयोग्यता का नहीं, राकांपा से अलग होकर शिंदे सरकार में शामिल हुए विधायकों का भी है। मगर विधानसभा अध्यक्ष इन दोनों मामलों में चुप्पी साधे हुए हैं, तो इसकी वजह भी प्रकट है।
जिस तरह एकनाथ शिंदे की अगुआई में शिवसेना के विधायक कई दिनों तक अलग-अलग शहरों में भागते फिर रहे थे और उनका आतिथ्य भाजपा के लोग संभाले हुए थे, उसी से जाहिर हो गया था कि उद्धव ठाकरे की सरकार को गिराने की साजिश रची गई है। फिर जिस नाटकीय ढंग से एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाया गया, उसके बाद अनेक संवैधानिक सवाल उठने शुरू हो गए थे।
यही प्रक्रिया तब भी दोहराई गई, जब राकांपा से अलग होकर आठ विधायकों ने शिंदे सरकार में महत्त्वपूर्ण ओहदे हासिल कर लिए। विधानसभा अध्यक्ष को यह अधिकार है कि वे दलबदल कानून के तहत विधायकों की सदस्यता जांचें-परखें। मगर जैसा कि पहले भी अनेक मौकों पर देखा गया है, जब भी इस तरह कोई सरकार गिराई और जोड़तोड़ कर नई सरकार बनाई जाती है, तो विधानसभा अध्यक्ष सियासी चुप्पी साध लेते हैं। महाराष्ट्र के मामले में भी यही हुआ। पहले ही इन घटनाओं से संवैधानिक मूल्यों को काफी नुकसान हो चुका है, अब विधानसभा अध्यक्ष से अपेक्षा की जाती है कि वे अगले चुनाव से पहले निष्पक्ष फैसला सुनाएं।