मानसून की विदाई के साथ धान की कटाई शुरू हो गई है। मगर विडंबना है कि हर सख्ती के बावजूद खेत-खलिहानों में इस वर्ष भी पराली जलाई जा रही है। इससे जाहिर है कि नियम-कायदों की परवाह किसी को नहीं है। यह छिपी बात नहीं है कि पराली जलाने से प्रति वर्ष दिल्ली और आसपास प्रदूषण गंभीर स्तर तक पहुंच जाता है। नागरिकों का दम घुटने लगता है। अस्पतालों में उपचार कराने की नौबत आ जाती है। सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग ने कवायद शुरू की, तब जाकर पंजाब और हरियाणा की सरकारें सक्रिय हुईं।
पंजाब पुलिस ने आनन-फानन में एक महीने में ही आठ सौ चौहत्तर प्राथमिकियां दर्ज कीं। वहीं कैथल जिले में पराली जलाने पर अठारह किसानों को गिरफ्तार किया गया। हरियाणा के कृषि विभाग ने पहली बार चौबीस अधिकारियों को निलंबित कर दिया। बावजूद इसके, पराली जलाने के मामले घट नहीं रहे। दिल्ली के आसमान पर धुएं की परत जमने लगी है। ऐसे में सर्वोच्च अदालत ने केंद्र के साथ पंजाब और हरियाणा को याद दिलाया है कि प्रदूषण मुक्त वातावरण में रहना नागरिकों का मौलिक अधिकार है।
कोर्ट की फटकार के बाद सरकार ने लिया एक्शन
बड़ा सवाल है कि नागरिकों का स्वास्थ्य खतरे में होने के बावजूद पर्यावरण कानून का पालन करने से सरकारों को कौन रोक रहा है? इसे शक्तिहीन बनाने के लिए अदालत ने बुधवार को केंद्र की भी खिंचाई की। स्पष्ट है कि पराली जलने से लगातार बढ़ रहे प्रदूषण की बड़ी वजह जमीनी स्तर पर कार्रवाई न होना है। राज्य सरकारें और स्थानीय जिला प्रशासन पर्यावरण संरक्षण कानून को सख्ती से लागू करते, तो यह नौबत नहीं आती।
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यही वजह है कि शीर्ष अदालत ने बुधवार को पंजाब और हरियाणा के मुख्य सचिवों को तलब कर बार-बार आंकड़े बदलने पर सवाल उठाया और कहा कि हर कोई इस मामले को हलके में ले रहा है। इससे गलत संदेश गया है। यह हैरानी की बात है कि शीर्ष न्यायालय की फटकार और बार-बार चिंता जताए जाने पर भी गंभीरता से व्यापक कार्रवाई न होना, यह साबित करता है कि राज्य सरकारें नागरिकों के स्वास्थ्य के प्रति सचेत नहीं हैं।
