राजस्थान के कोटा में एक छात्रा की खुदकुशी की घटना से फिर यही पता चलता है कि पिछले कई वर्षों से लगातार इस समस्या के गहराते जाने के बावजूद इसमें सुधार के लिए कोई गंभीरता नहीं दिख रही। गौरतलब है कि छात्रा ने आत्महत्या करने से पहले अपने माता-पिता को संबोधित पत्र में लिखा कि ‘मैं जेईई नहीं कर सकती… इसलिए आत्महत्या कर रही हूं। मैं हारी हुई हूं… मैं ही इसकी वजह हूं… यह आखिरी विकल्प है।’
यह बताने के लिए काफी है कि पढ़ाई-लिखाई से लेकर ‘कुछ बड़ा’ कर पाने के बोझ और समूची व्यवस्था से किस स्तर पर त्रासद स्थितियां पैदा हो रही हैं, जिसमें किशोरवय बच्चों के सामने जिंदगी और मौत में किसी एक को चुनने का विकल्प पैदा हो रहा है। इस वर्ष किसी विद्यार्थी की आत्महत्या की यह दूसरी घटना है। जब इस तरह की कोई घटना व्यापक चर्चा का विषय बन जाती है, सब तरफ चिंता जताई जाने लगती है, तब इसके हल के लिए विभिन्न स्तरों पर उपाय करने की बातें की जाती हैं। मगर शायद इस समस्या की जड़ों की पहचान कर उसके मुताबिक ठोस रास्ते निकालने की पहल नहीं हो पा रही है।
वाल है कि जिस किशोरावस्था में बच्चे कई तरह की मानसिक-शारीरिक उथल-पुथल से गुजरते रहते हैं, उसमें उनके सिर पर पढ़ाई-लिखाई और भविष्य की चिंता को एक बोझ के रूप में कौन डाल देता है! इसके बाद उस चिंता को भुनाने के लिए कोचिंग संस्थानों ने जैसा सख्त तंत्र खड़ा किया है और उसमें जिस तरह बहुत सारे बच्चे पिस और टूट रहे हैं, उस पर कोई लगाम क्यों नहीं है?
सरकारों को इससे संबंधित कोई स्पष्ट और ठोस नीति बनाने की जरूरत क्यों नहीं लग रही है? यह त्रासदी तब भी कायम है जब पिछले कई वर्षों से लगातार कोटा में ऐसी परीक्षा की तैयारी करने वाले छात्र-छात्राओं की खुदकुशी अब एक व्यापक चिंता का विषय बन चुकी है। ऐसी आत्महत्याओं का कारण एक ही होता है कि किसी बच्चे ने परीक्षा और तैयारी के सामने खुद को लाचार पाया और उसे कोई अन्य रास्ता नहीं सूझा।
यह समझने की जरूरत क्यों नहीं महसूस हो रही है कि जिस उम्र में कई बच्चों के सिर पर इस तरह की पढ़ाई और उससे संबंधित परीक्षा में बेहतरीन नतीजे लाने का बोझ लाद दिया जाता है, उस दौरान वे विषम हालात से निपट सकने के लिए कितनी परिपक्वता रखते हैं।
आमतौर पर मान लिया गया है कि जीवन में सफल होने के लिए डाक्टर-इंजीनियर या कोई उच्च प्रशासनिक अधिकारी बनना ही अच्छा विकल्प है। इन परीक्षाओं में कामयाबी को लेकर किसी विद्यार्थी के भीतर कितनी रुचि है या उसके लिए वह कितना सक्षम है, इसका आकलन करने की कोई जरूरत नहीं समझी जाती।
दूसरी ओर, बच्चों का बेहतर भविष्य बनाने के लिए प्रचलित धारणाओं के शिकार अभिभावक अपनी महत्त्वाकांक्षाएं अपने बच्चों के जरिए पूरा करना चाहते हैं। जबकि किशोरवय स्कूल-कालेज की पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ व्यक्तित्व निर्माण का एक नाजुक दौर होता है। इसके बजाय अगर प्रवेश परीक्षा के लिए पढ़ाई में दिलचस्पी न होने के बावजूद किसी बच्चे के सामने अकेला विकल्प यही रख दिया जाता है, तो उसके सोचने-समझने और संवेदना की दिशा बाधित होगी ही। ऐसे में अगर बच्चे जीवन से हार जाते हैं, तो इसकी जिम्मेदारी किस पर जाएगी? जाहिर है, यह परिवार, समाज, शिक्षा जगत और सरकार के लिए सोचने का मुद्दा है कि आखिर यह होड़ कहां जाकर रुकेगी!