संसद जैसी लोकतांत्रिक संस्था की विश्वसनीयता को बनाए रखना सांसदों की सबसे बड़ी जिम्मेदारी होती है। उनकी बेदाग छवि एवं सुचितापूर्ण व्यवहार लोकतंत्र की सफलता की एक शर्त माना जाता है। विशेषकर जब वे जनता के बीच हों, तो उनके आचरण को लेकर ऐसी अपेक्षा की जाती है कि वह दूसरों के लिए भी मिसाल बनें।

संसदीय परंपरा के ये मानक राजनीति के पथ पर अब धूमिल पड़ते जा रहे हैं। बेदाग राजनीति का दम भरते हुए सार्वजनिक जीवन में कदम रखने वाले आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह की शराब नीति घोटाले में गिरफ्तारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में आचरण संबंधी मानकों पर नए सिरे से विचार की मांग करती है। आखिर नीतिगत स्तर पर ऐसा क्या हुआ कि जनप्रतिनिधियों को भी जेल जाना पड़ रहा है।

दूसरी ओर, महाराष्ट्र के हिंगोली से शिवसेना सांसद हेमंत पाटिल ने जिस तरह डाक्टर शंकरराव चव्हाण शासकीय चिकित्सकीय महाविद्यालय एवं अस्पताल के कार्यवाहक डीन से शौचालय साफ कराया, वह निहायत ही आपत्तिजनक तो है ही, सांसद जैसे पद की गरिमा के बिल्कुल विपरीत है। होना तो यह चाहिए था कि बा-हैसियत सांसद अस्पताल प्रशासन के साथ बैठकर उन कमियों को दूर करने पर विचार-विमर्श करते, जिनकी वजह से अस्पताल में नाहक दर्जनों लोगों की जान चली गई।

लेकिन उन्होंने सड़कछाप हेकड़ी दिखाने का रास्ता चुना और वरिष्ठ चिकित्सक को नीचा दिखाया। चिकित्सक की शिकायत पर पाटिल के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने भी इस मामले में मुख्यमंत्री शिंदे से सांसद के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है। सांसद के आचरण के कारण अस्पताल में व्यवस्थागत मुद्दा पीछे छूट गया।

यह बात अकेले सांसद हेमंत की नहीं है। पिछले दिनों संसद में भाजपा सांसद रमेश बिधूड़ी की बसपा के सांसद के खिलाफ बहुत ही आपत्तिजनक टिप्पणियों को लोकसभा की कार्यवाही से निकालना पड़ा था। संसदीय जीवन की सर्वोच्च परम्परा को बनाए रखने के लिए सांसदों से सदन के अंदर और बाहर दोनों ही जगह सम्मानपूर्ण आचरण की अपेक्षा की जाती है।

सांसदों का व्यवहार तो ऐसा होना चाहिए, जिससे संसद की गरिमा बढ़े और आम लोगों पर उसका सकारात्मक असर हो। लेकिन हमारी संसद में ऐसे सांसदों की फेहरिस्त लंबी होती जा रही है, जिनका व्यवहार सवालों के घेरे मेंहोता है। पिछले दिनों आई एडीआर की रपट इसका जीता-जागता उदाहरण है। क्या ऐसा सांसद अपने मतदाताओं की उम्मीदों पर खरा उतर सकता है, जिसका व्यवहार ही उनके प्रति सम्मानजनक न हो।

संसद सदस्य जैसे प्रतिष्ठित पद पर बैठे व्यक्ति की जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरने और संसदीय शासन व्यवस्था में उनके विश्वास को मजबूत करने की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी होती है। यदि इन मानकों का पालन नहीं होता है तो यह लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता।

चारित्रिक नैतिकता, उत्तरदायित्व और औचित्यपूर्ण आचरण किसी भी जनप्रतिनिधि के व्यक्तित्व को निखारने का काम करता है, उस पर जनता का भरोसा बढ़ाता है। जनप्रतिनिधियों के आचरण का स्तर जिस प्रकार गिरता जा रहा है, उससे तो जनता का भरोसा लोकतंत्र से उठता जाएगा। द्योगिकी संस्थान, रुड़की और भारतीय विज्ञान संस्थान, बंगलुरू के शोधार्थियों ने पाया है कि ये झीलें मुख्यत: सुदूर और पर्वतीय घाटियों में स्थित हैं लेकिन दूरगामी जीएलओएफ निचले बहाव क्षेत्र में 10 किलोमीटर तक जान और माल का नुकसान कर सकती हैं।

शोध रपटों में लगातार चेतावनी दी जाती रही है कि वर्तमान और भविष्य में हिमनद टूटने से होने वाले परिवर्तनों से जुड़े जीएलओएफ खतरे का मूल्यांकन करना जरूरी है। सवाल उठता है कि ऐसा क्यों नहीं हो सका।इसी साल मार्च महीने में संसद में पेश की गई एक रपट में बताया गया था कि हिमालय के तमाम हिमनद अलग-अलग दर से, लेकिन तेजी से पिघल रहे हैं और इस वजह से हिमालय की नदियां किसी भी समय बड़ी प्राकृतिक आपदा का कारण बन सकती हैं।

यह सही है कि जलवायु परिवर्तन वैश्विक मसला है और किसी एक देश की सरकार अकेले ज्यादा कुछ नहीं कर सकती। फिर भी बड़े और संवेदनशील हिमनदों की स्थिति पर लगातार नजर रखते हुए संभावित हादसों से निपटने की तैयारी जरूर की जा सकती है। इन इलाकों के लोगों को अपेक्षाकृत ज्यादा जागरूक रखा जा सकता है। इन उपायों से हादसे भले न टाले जा सकें, लेकिन नुकसान जरूर कम किया जा सकता है। लेकिन सिक्किम की आपदा के मामले में जाहिर है ऐसा नहीं हो सका।