कम से कम एक मामले में जरूर विभिन्न पार्टियों के बीच सर्वसम्मति नजर आती है, और वह है सांसदों तथा विधायकों की वेतन-वृद्धि! कुछ समय पहले दिल्ली के विधायकों की तनख्वाह में चार सौ फीसद की बढ़ोतरी हुई थी, जहां आम आदमी की बात करने वाली पार्टी की सरकार है। अब संसदीय मामलों के मंत्रालय ने सांसदों का वेतन दुगुना करने की सिफारिश की है। अगर यह प्रस्ताव मान लिया जाता है तो लोकसभा और राज्यसभा के सदस्यों को प्रतिमाह 2.8 लाख रुपए मिलेंगे। इसके अलावा, उन्हें कई तरह के भत्ते मिलते हैं और उनमें भी बढ़ोतरी करने का प्रस्ताव है। गौरतलब यह भी है कि कई सिफारिशें पहली बार की गई हैं। मसलन, पांच साल से अधिक समय तक सांसद रहने वाले व्यक्ति को अधिक पेंशन मिलेगी। यह प्रस्ताव ऐसे समय आया है जब केंद्रीय कर्मियों के लिए सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें सरकार मान चुकी है।
संसदीय कार्य मंत्रालय के प्रस्ताव के मुताबिक सांसद का वेतन केंद्र सरकार के सचिव से एक हजार रुपए अधिक और मंत्री का वेतन कैबिनेट सचिव से दस हजार रुपए अधिक करने की योजना है। यह दलील सांसदों की तरफ से जब-तब दी जाती रही है कि उनका वेतन केंद्र के सचिव से ज्यादा हो। फिर अंतर मामूली भले हो, पर विधायिका को कार्यपालिका से अधिक महत्त्व हासिल है यह संदेश जाना चाहिए। जनप्रतिनिधि यह दावा करते हैं कि वे देश-सेवा के लिए राजनीति में आए हैं। फिर उन्हें तनख्वाह के कोण से, नौकरशाहों से अपनी तुलना क्यों करनी चाहिए! पहले भी सांसदों के अधिकार जितने थे, सचिव से अधिक तनख्वाह हो जाने पर भी, उतने ही रहेंगे। सांसद नीतियां और कानून बनाते हैं। अधिकारी उनकी बराबरी नहीं कर सकते।
बहरहाल, बदली हुई परिस्थितियों में वेतन-वृद्धि की जरूरत समझी जा सकती है। फिर भी यहां दो सवाल उठते हैं। एक यह कि क्या जिस बढ़ोतरी का प्रस्ताव संसदीय कार्य मंत्रालय ने किया है, वह तर्कसंगतहै? दूसरे, सांसदों के वेतन-भत्तों के पुनर्निर्धारण के लिए क्या प्रक्रिया होनी चाहिए। कई देशों में इसके लिए स्वतंत्र आयोग होते हैं। पर भारत में ऐसी कोई व्यवस्था न होने से यह आरोप लगता है कि सांसद और विधायक जब चाहे तब अपनी तनख्वाह बढ़ा लेते हैं। वृद्धि किस मद में कितनी हो, यह सब वही तय करते हैं। इसमें सत्तापक्ष और विपक्ष में कोई मतभेद नजर नहीं आता। संसद के शीतकालीन सत्र में प्रस्तावित सड़सठ विधेयकों में से लोकसभा में चौदह और राज्यसभा में नौ विधेयक ही पारित हो पाए। क्या वेतन-वृद्धि और काम के बीच कोई संबंध नहीं होना चाहिए?
यह सही है कि सदन की कार्यवाही की तुलना किसी सरकारी दफ्तर के कामकाज से नहीं की जा सकती। सदन देश के सामने मौजूद समस्याओं और चुनौतियों पर बहस का मंच है तथा नीतियां और कानून पारित करने की जगह है। सरकार का कोई प्रस्ताव गलत मालूम पड़े, तो उसका विरोध करना और उसकी तरफ देश का ध्यान खींचना विपक्ष का हक है। मगर जिन मसलों पर कोई टकराहट नहीं होती, कई बार तब भी सांसदों की मौजूदगी अपेक्षा से बहुत कम होती है। कई विधेयक बिना किसी चर्चा के पारित कर दिए जाते हैं। चूंकि हमारी विधायिका की साख लोगों की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं रह गई है, इसलिए हैरत की बात नहीं कि सांसदों और विधायकों की वेतन-वृद्धि पर आम प्रतिक्रिया अमूमन सकारात्मक नहीं होती।