सालों से इस तरह की चर्चा सामाजिक अभ्यास में आ गई है और अब लोगों की प्राथमिक नजर इसी पर जाती है। जबकि इसी बीच विद्यार्थियों के बीच का एक छोटा हिस्सा बेहद निराशा या हताशा की स्थिति का सामना कर रहा होता है, जो किन्हीं वजहों से अच्छे अंक हासिल नहीं कर पाता या परीक्षा में उत्तीर्ण ही नहीं हो पाता है। चारों तरफ एक तरह के जश्न के माहौल में ऐसे विद्यार्थी खुद को एक नाकाम व्यक्तित्व के रूप में महसूस करते हैं और इससे उपजा तनाव कई बार उन्हें अवसाद या इसके घातक असर तक की हालत में डाल देता है।
गौरतलब है कि इस साल केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड यानी सीबीएसई की दसवीं और बारहवीं के नतीजे आने के बाद अकेले दिल्ली में कम से कम चार विद्यार्थियों ने सिर्फ इसलिए अपनी जान दे दी कि उन्हें अच्छे या अपेक्षित अंक नहीं मिल सके थे। परीक्षा परिणाम आने के बाद देश के अन्य हिस्सों से भी ऐसी खबरें आती रही हैं।
विडंबना यह है कि चारों ओर अंकों के ऊंचे प्रतिशत की बुनियाद पर टिकी कामयाबी के शोर में इस तरह की कुछ घटनाएं पीड़ित परिवारों के दुखी होने से इतर शायद ही कोई सार्वजनिक चिंता की वजह बन पाती हैं। यही वजह है कि सफलता-विफलता की इस परिभाषा के बीच पिछड़ने के भाव से उपजा एक दंश पलने लगता है, जिसकी मार कमजोर सामाजिक-भावनात्मक पृष्ठभूमि वाले बच्चों पर पड़ती है।
सवाल है कि परीक्षा के नतीजों का असर इस हद तक पड़ना कितना उचित है कि कामयाबी या नाकामी का पैमाना ही यही हो जाए। आखिर ऐसी स्थिति क्यों बन रही है कि किन्हीं वजहों से अगर कोई विद्यार्थी नब्बे-पंचानबे फीसद से कम अंक हासिल कर पाता है तो खुद को कामयाबी के दायरे में पिछड़ा मान लेता है और इससे उपजे तनाव में अपने जीवन तक को खारिज कर देता है?
इस मुश्किल स्थिति के लिए क्या केवल उनकी नाकामी जिम्मेदार होती है? या फिर विफलता को लेकर सामाजिक धारणाएं और व्यवस्थागत प्रतिक्रिया ऐसे दबाव पैदा करती हैं, जिसे सह पाना कई विद्यार्थियों के लिए असंभव हो जाता है? इस तरह धारणाएं किन परिस्थितियों की उपज होती हैं कि ऊंचे अंक ही सफलता का पर्याय हैं?
सच यह है कि ऐसे अनेक उदाहरण आसपास बिखरे पड़े हैं, जिसमें कम अंक लाने या उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाने वाला कोई विद्यार्थी प्रतिभा और कौशल के मामले में ऊंची शिक्षा और ऊंचे अंक वाले विद्यार्थियों के मुकाबले बेहतर साबित होता है। यों अक्सर ऐसी सूक्तियों का हवाला दिया जाता रहता है कि नाकामी दरअसल कामयाबी की सीढ़ी है।
लेकिन क्या नाकामी को लेकर सामूहिक सामाजिक धारणा इस सूत्र का खयाल रखना जरूरी समझती है? कहने को स्कूलों में कई स्तर पर भावनात्मक मुश्किलों से जूझने वाले विद्यार्थियों की सहायता के लिए काउंसिलिंग या मनोवैज्ञानिक सलाह देने की व्यवस्था की बात होती है, मगर इसका अपेक्षित असर नहीं देखा जाता है।
जबकि कामयाबी की होड़ में ऐसी हालत बनती गई है, जिसमें समय पर मनोवैज्ञानिक सलाह के लिए एक ठोस तंत्र की जरूरत महसूस की जाती है। एक अहम पहलू यह है कि किसी भी समुदाय में कामयाब माने जाने वाले लोगों की यह जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वे अपने से कमजोर माने जाने वाले लोगों की अंगुली पकड़ कर अपने बराबर लाने की कोशिश करें। शिक्षा तभी सार्थक है।