भारतीय रिजर्व बैंक ने एक बार फिर रेपो दर में कोई बदलाव न करने का फैसला किया है। यह ग्यारहवीं बार है, जब रेपो दर यथावत रखा गया। यह पिछले वर्ष की फरवरी से साढ़े छह फीसद पर बना हुआ है। इसका बोझ सबसे अधिक घर और वाहन के लिए कर्ज लेने वाले मध्यवित्त वर्ग को उठाना पड़ रहा है। इसलिए वे उम्मीद लगाए हुए थे कि अगर रेपो दर में कमी की जाएगी तो उनके कर्ज पर किस्तें कुछ कम होंगी। मगर महंगाई के ऊपर की तरफ बने हुए रुख दो देखते हुए रिजर्व बैंक ने फिलहाल इसमें किसी तरह का बदलाव करना उचित नहीं समझा।
रेपो दर वह ब्याज दर है, जिस पर बैंक रिजर्व बैंक से कर्ज लेते हैं। जाहिर है, उससे अधिक दर पर वे अपने ग्राहकों को कर्ज देते हैं। पिछले वर्ष रेपो दर में बढ़ोतरी का कुछ असर महंगाई पर देखा भी गया था। मगर इतनी लंबी अवधि का अनुभव यही है कि रेपो दर ऊंची रखने से महंगाई पर कोई बहुत असर नहीं पड़ रहा। बेशक, इसका कारोबार पर असर दिखने लगा है।
बैंकों के कारोबार पर पड़ते नकारात्मक प्रभाव को कम करने के मकसद से सीआरआर यानी आरक्षित नगद अनुपात में पचास आधार अंक की कटौती कर दी गई है। सीआरआर यानी जो रकम बैंकों को हमेशा अपने पास आरक्षित रखनी पड़ती है। मगर इससे बैंकों को कितनी मदद मिलेगी, दावा करना मुश्किल है। अब अर्थव्यवस्था की विकास दर में कई विसंगतियां नजर आने लगी हैं। चालू वित्तवर्ष की दूसरी तिमाही की विकास दर सरकार के लिए गंभीर चेतावनी की तरह आई है।
ऊपर से महंगाई बेलगाम बनी हुई है। डालर के मुकाबले रुपए की कीमत चिंताजनक स्तर तक गिर चुकी है। विनिर्माण क्षेत्र हिचकोले खा रहा है। ऐसे में रेपो दर को यथावत रख कर महंगाई और विकास दर के बीच कैसे संतुलन बिठाया जा सकेगा, समझ से परे है। लंबे समय से लोगों की क्रयशक्ति बढ़ाने के व्यावहारिक उपाय आजमाने पर बल दिया जा रहा है, मगर सरकार तमाम दावों और वादों के बावजूद रोजगार सृजन और आय में विषमता के मोर्चे पर कोई ठोस उपाय नहीं जुटा पा रही है।