लोकतांत्रिक व्यवस्था की मजबूती के लिए संवैधानिक संस्थाओं के कामकाज में शुचिता और पारदर्शिता प्राथमिक शर्त है। मगर राजनीतिक नफे-नुकसान के गणित में सरकारों ने सबसे अधिक कमजोर इन्हीं संस्थाओं को किया है। शायद ही कोई संवैधानिक संस्था बची है, जो भ्रष्टाचार और कदाचार की जकड़बंदी से मुक्त हो। फिर भी जब इन संस्थाओं के भीतर से ही शुचिता लाने के संकल्प उभरते हैं, तो स्वाभाविक रूप से बेहतरी की उम्मीद बनती है। देश की न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार के आरोप लंबे समय से लगते रहे हैं। निचली अदालतों पर तो ऐसे आरोप आम रहे हैं, पर ऊपरी अदालतों में भी पिछले कुछ वर्षों से ऐसे मामले सामने आए हैं, जिससे न्यायपालिका की साख पर सवाल उठने लगे हैं।
ऐसे में प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई ने इस समस्या को साफगोई से स्वीकार किया और इसे दूर करने का संकल्प दोहराया है, तो सकारात्मक नतीजों का भरोसा बना है। ब्रिटेन के उच्चतम न्यायालय में आयोजित एक गोलमेज सम्मेलन में न्यायमूर्ति गवई ने कहा कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और कदाचार की घटनाओं से जनता का भरोसा टूटता है। दुख की बात है कि न्यायपालिका के भीतर भी भ्रष्टाचार और कदाचार के मामले सामने आए हैं। यह बात उन्होंने दिल्ली में न्यायाधीश यशवंत वर्मा के घर से बरामद जली नगदी नोटों के संदर्भ में कही।
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों ने संयुक्त रूप से लिया है संकल्प
प्रधान न्यायाधीश ने भारतीय न्यायपालिका के भीतर जड़ें जमा रही या जमा चुकी उन सभी समस्याओं को बड़े साफ शब्दों में स्वीकार किया, जिन्हें लेकर अंगुलियां उठती रही हैं। पिछले कुछ वर्षों में उच्चतम न्यायालय और कुछ उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के राजनीतिक दबाव में या निजी स्वार्थ साधने के मकसद से फैसले सुनाने को लेकर काफी असंतोष जाहिर किया जाता रहा है। कुछ न्यायाधीशों ने सेवामुक्त होने के तुरंत बाद सरकारी पद स्वीकार कर लिया, तो कुछ चुनावी मैदान में उतर गए। इसे किसी भी रूप में नैतिक नहीं माना गया।
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हालांकि अब उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों ने संयुक्त रूप से संकल्प लिया है कि वे सेवानिवृत्ति के बाद कोई सरकारी पद स्वीकार नहीं करेंगे, न इस्तीफा देकर चुनाव लड़ेंगे। इससे यह उम्मीद तो बनी है कि शीर्ष न्यायालय के न्यायाधीश सत्ता के किसी दबाव में आकर कोई फैसला सुनाने से बच सकेंगे। राजनीतिक लोभ और दबाव से मुक्त हुए बिना न्यायपालिका सही अर्थों में अपने दायित्व का निर्वाह नहीं कर सकती। इसलिए प्रधान न्यायाधीश का इस दिशा में प्रयास सराहनीय है।
न्यायाधीशों का व्यक्तिगत आचरण रखता है बहुत मायने
लोकतंत्र में न्यायपालिका पर लोगों का भरोसा इसलिए भी बने रहना बहुत जरूरी है कि यही एक स्तंभ है, जिस पर संविधान की रक्षा का दायित्व और राजनीतिक तथा व्यवस्थागत कदाचार पर नकेल कसने का अकूत अधिकार है। यह भी अनुभव जगजाहिर है कि जब भी न्यायपालिका कमजोर दिखती है, तो सत्ता पक्ष की मनमानियां बढ़ती जाती हैं। इसीलिए न्यायाधीशों का व्यक्तिगत आचरण बहुत मायने रखता है। मगर पिछले कुछ वर्षों में इस तकाजे को जैसे भुला दिया गया है।
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कुछ न्यायाधीशों के सुर्खियां बटोरने के लोभ की वजह से न्यायिक सक्रियता का सवाल भी उठना शुरू हुआ था। कालेजियम प्रणाली और न्यायाधीशों की नियुक्ति में पक्षपात आदि के आरोप भी सुगबुगाते रहे हैं। इन सभी पहलुओं पर प्रधान न्यायाधीश ने बड़ी बेबाकी से बात की और उन्हें दुरुस्त करने का भरोसा दिलाया है। निस्संदेह इससे बहुत सारे लोगों की उम्मीदें बलवती होंगी। पर देखने की बात होगी कि ये संकल्प जमीन पर कितना उतर पाते हैं।