सतलज यमुना संपर्क नहर की बाबत यथास्थिति बनाए रखने का सर्वोच्च न्यायालय का आदेश पंजाब सरकार के लिए झटका है। पर इस मामले में राज्य सरकार ने न्यायालय के प्रति पर्याप्त सम्मान दिखाया होता, तो ऐसे आदेश की नौबत ही नहीं आती। जोड़ नहर का विवाद लंबे समय से सर्वोच्च अदालत में विचाराधीन है, और 2004 के अदालत के फैसले के मुताबिक यथास्थिति बनाए रखना था। सतलज-यमुना जोड़ नहर की परिकल्पना इस मकसद से की गई थी कि हरियाणा को रावी और व्यास नदियों का उसके हिस्से का पानी मिल सके। इस योजना के साथ दो सिद्धांत भी जुड़े भी रहे हैं। एक, देश के संघीय ढांचे का, और दूसरा, जो राज्य नदीतटवर्ती न हो, उसके साथ न्याय होने का। लेकिन पंजाब का रवैया इस मामले में बराबर हठधर्मिता का रहा है। अलबत्ता वह इसका अकेला उदाहरण नहीं है। कावेरी के पानी के बंटवारे को लेकर भी इसी तरह जब-तब आग लग जाती है।
अगर चुनाव नजदीक हों, तब तो ऐसी आग लगाने और उसमें सियासी रोटियां सेंकने की कवायद चरम पर पहुंच जाती है। सतलज-यमुना लिंक नहर के विवाद को पंजाब सरकार ने नए सिरे से हवा दी, तो इसका बड़ा कारण यही होगा कि राज्य विधानसभा का कार्यकाल अब लगभग एक साल ही रह गया है और राज्य में चुनावी गहमागहमी शुरू हो गई है। लगातार अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम चरण में पहुंच चुकी बादल सरकार के प्रति मोहभंग बढ़ने के संकेत हर तरफ दिखते हैं। ऐसे में लगता है कि अकाली दल एक भावनात्मक मसला उभारने की फिराक में था ताकि लोगों का ध्यान बंटाया जा सके।
लिंक नहर की जमीन उनके मूल मालिकों या वारिसों को लौटाने का विधेयक पारित करा कर उसने यही किया है। उसकी उतावली इसी से समझी जा सकती है कि पार्टी के कार्यकर्ताओं ने विधेयक को राज्यपाल की मंजूरी मिलने तथा अधिसूचना जारी होने का भी इंतजार नहीं किया और नहर में मिट्टी डालने पहुंच गए। इस लोकलुभावन होड़ में कांग्रेस और नई प्रतिद्वंद्वी आम आदमी पार्टी भी शामिल हो गई, पर अकाली दल के दांव के आगे उनके पास खिसियाने के सिवा कुछ नहीं था।
बादल सरकार के विधेयक ने पंजाब और हरियाणा को एक बार फिर आमने-सामने खड़ा कर दिया। यह दिलचस्प है कि सबको राष्ट्रवाद की नसीहत देने वाली भारतीय जनता पार्टी पंजाब की सरकार में साझेदार है और हरियाणा में तो सौ फीसद उसी की सरकार है। फिर भी हरियाणा को रोना पड़ रहा है कि पंजाब ने उसके हितों का खयाल नहीं रखा है! हरियाणा के रुदन से पंजाब भाजपा के नेताओं को कोई लेना-देना नहीं है, न ही सहयोगी पार्टी अकाली दल को।
और भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व ने इस पर चुप्पी साध रखी है। हार मान कर हरियाणा को अदालत की शरण लेनी पड़ी। यह कैसा राष्ट्रवाद है जो पड़ोसी राज्य के प्रति संवेदनशील होना नहीं सिखा सकता? अगर पाकिस्तान के साथ नदी-जल की साझेदारी हो सकती है और बांग्लादेश केसाथ इस तरह की साझेदारी से जुड़े मतभेदों को स्थायी रूप से दूर करने की कोशिश जारी है, तो हरियाणा को उसका हिस्सा देने के लिए पंजाब को राजी क्यों नहीं किया जा सकता! दरअसल, जरूरत इसके अनुरूप राजनीतिक माहौल बनाने की है। पर अभी तो हो उलटा रहा है। ऐसा माहौल बनाया जा रहा है जिसमें पहले के स्वीकृत सिद्धांतों और फार्मूलों पर भी पानी फिर जा सकता है।