कोलकाता में एक प्रशिक्षु चिकित्सक की बलात्कार के बाद हत्या की घटना के खिलाफ चिकित्सकों के आंदोलन का आधार बिल्कुल उचित है। यह भी कहा जा सकता है कि इस मुद्दे पर उभरे जनाक्रोश की वजह से ही सरकारी तंत्र के भीतर कानूनी कार्रवाई को लेकर सजगता देखी जा रही है। मामले की जांच सीबीआइ भी कर रही है और इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट भी जरूरी सवाल उठा रहा है, जिसका जवाब देना पश्चिम बंगाल सरकार के लिए भारी पड़ रहा है।
मगर इसका एक पहलू यह भी है कि राज्य में इस घटना के खिलाफ चिकित्सकों का जो विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ था, उसके एक महीने से ज्यादा समय से जारी रहने की वजह से सरकारी अस्पतालों में चिकित्सा सेवा बुरी तरह बाधित हुई है। इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई के दौरान सोमवार को पश्चिम बंगाल सरकार ने बताया कि चिकित्सकों के विरोध प्रदर्शन की वजह से तेईस मरीजों की जान चली गई।
चिकित्सकों की हड़ताल और उनके आक्रोश के औचित्य को समझना कोई मुश्किल काम नहीं है। मगर अफसोस की बात यह है कि कोलकाता में हुई त्रासद वारदात में आरोपी सहित संदेह के घेरे में आए अन्य जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई के मामले में अनिवार्य सजगता नहीं दिखाई गई। यही वजह है कि समूचे देश में इस घटना के खिलाफ आक्रोश पैदा हुआ। इसमें देश के अलग-अलग हिस्से में उभरा चिकित्सकों का आंदोलन भी है। यों कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई करते हुए जब चिकित्सकों से काम पर लौटने को कहा था, तब दिल्ली के कुछ अस्पतालों में डॉक्टरों ने ड्यूटी पर वापस आने की बात कही, मगर पश्चिम बंगाल में चिकित्सकों का आंदोलन अपनी मांगों पर डटा रहा।
सुप्रीम कोर्ट का निर्देश
अब एक बार फिर अस्पतालों में सेवा बाधित होने और उसकी वजह से मरीजों के सामने पैदा होने वाले जोखिम की वजह से सुप्रीम कोर्ट ने चिकित्सकों को ड्यूटी पर लौटने का निर्देश देते हुए कहा कि कामकाज शुरू करने पर उनके खिलाफ कोई विपरीत कार्रवाई नहीं की जाएगी।
यह छिपा नहीं है कि अगर किसी भी वजह से सरकारी अस्पतालों में चिकित्सा सेवा ठप होती है तो इसका सीधा असर वहां आने वाले मरीजों की सेहत पर पड़ता है, जो आमतौर पर गरीब तबकों से आते हैं। ऐसे मरीजों और उनके परिजनों के सामने महंगे निजी अस्पतालों या डाक्टरों के क्लीनिक में जाकर इलाज का खर्च उठाने की सामर्थ्य नहीं होती। वे इलाज के लिए आमतौर पर सरकारी अस्पतालों पर निर्भर होते हैं। ऐसे में चिकित्सकों के ड्यूटी पर नहीं लौटने का खमियाजा उन्हें ही उठाना पड़ रहा है। इस क्रम में राज्य सरकार की ओर से अदालत में बताए गए तेईस मरीजों की मौत के आंकड़े सही हैं, तो यह चिंताजनक है।
समय पर चिकित्सा या अस्पतालों में कामकाज को वैसे भी अनिवार्य सेवाओं के तहत देखा जाता रहा है। प्रशिक्षु चिकित्सक के बलात्कार और उसकी हत्या से सभी लोग दुखी और आक्रोशित हैं। मगर जरूरत इस बात की भी है कि सरकारी अस्पतालों के भरोसे जीवन बचाने की उम्मीद पर टिके मरीजों की मुश्किल के मसले पर भी प्रदर्शनकारी चिकित्सक अपने दायित्व पर विचार करें। इसमें दो राय नहीं कि घटना की जांच, अपराध के साबित होने और दोषी को अधिकतम सख्त सजा मिलने के संदर्भ में कानूनी कार्रवाई के किसी भी पहलू पर अगर सरकार अब कोई ढीला रवैया अख्तियार करती है, तो उसे कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिए।