लगता है दिवाली प्रदूषण का पर्व बनती जा रही है। दिवाली पर हवा में प्रदूषण की मात्रा साल-दर-साल और बढ़ी हुई दर्ज हो रही है। इस बार दिल्ली में वायु प्रदूषण सामान्य से करीब तेईस गुना ज्यादा दर्ज हुआ। अलग-अलग इलाकों के हिसाब से देखें तो प्रदूषण की मात्रा वहां अधिक पाई गई जहां अपेक्षया संपन्न तबके के लोग रहते हैं। यह स्थिति तब है जब स्कूलों में बच्चों को पटाखे न छोड़ने की शपथ दिलाई गई थी, रेडियो-टेलीविजन पर पटाखों से बढ़ने वाले प्रदूषण की वजह से उत्पन्न खतरों के बारे में जानकारी देते हुए पटाखे न चलाने की लगातार अपील की गई थी।

पर्यावरण-सुधार की खातिर काम करने वाले संगठन काफी पहले से पटाखों के खिलाफ अभियान चला रहे थे। पर एक बार फिर यही जाहिर हुआ कि जब पढ़े-लिखे और अपेक्षाकृत जागरूक माने जाने वाले तबके को प्रदूषण की फिक्र नहीं है, तो इस समस्या से पार पाना कितना मुश्किल है। जब क्षणिक खुशियों के लिए और दिखावे की होड़ में लोग एक दिन संयम नहीं बरत सकते तो रोजमर्रा खराब हो रही आबोहवा को लेकर भला उनसे कितनी सतर्कता की अपेक्षा की जा सकती है। हर साल दिवाली के बाद प्रदूषण बढ़ने के आंकड़े आते हैं, तो दिल्ली सरकार पटाखे चलाने की प्रवृत्ति पर रोक लगाने के व्यावहारिक उपाय जुटाने का दम भरती है। इस बार भी इसकी वचनबद्धता दोहराई गई है। मगर सरकार और अदालतों की अपनी विवशताएं हैं। वे पटाखे चलाने जैसी प्रवृत्तियों के लिए कठोर सजा का प्रावधान नहीं कर सकतीं। इसके लिए लोगों से ही सामान्य नागरिक-बोध और सहयोग की अपेक्षा की जाती है।

महानगरों में सड़कों पर वाहनों की बढ़ती तादाद के चलते वैसे ही वायु प्रदूषण सामान्य से काफी अधिक बना रहता है। उसमें दिवाली के पटाखों का रासायनिक धुआं मिल कर स्थिति को और चिंताजनक बना देता है। वाहनों से निकलने वाले धुएं की मात्रा पर लगाम लगाना पहले ही सरकारों के लिए मुश्किल बना हुआ है। पेट्रोल और डीजल के बजाय गाड़ियों में सीएनजी के इस्तेमाल को बढ़ावा देने से वायु प्रदूषण में कमी आने की उम्मीद की गई थी, पर इसका अपेक्षित असर नहीं हो पा रहा। इस मामले में अदालतें कई बार दिशा-निर्देश दे चुकी हैं।
समय-समय पर हुए अध्ययन बताते हैं कि महानगरों में बढ़ते वायु प्रदूषण के चलते खासकर बुजुर्गों और बच्चों के स्वास्थ्य पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बच्चों का सामान्य विकास बाधित हो रहा है। उनकी याददाश्त कमजोर हो रही है। दमा और चिड़चिड़ेपन की शिकायतें आम हो चली हैं। मगर हैरानी की बात है कि इन तथ्यों के आमफहम होने के बाद भी लोगों में जागरूकता नहीं आ पा रही। वायु सहित सभी तरह के प्रदूषण पर काबू पाने के मामले में सरकारों की शिथिलता छिपी नहीं है।

पर जवाबदेही केवल सरकार के कंधों पर डाल कर अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता। सरकार जुर्माने और दंड का प्रावधान कर मान लेती है कि इससे समस्या का समाधान निकल आएगा, पर हकीकत यह है कि उसका अपेक्षित असर नहीं हो पाता। जो परेशानियां सामान्य नागरिक बोध और सतर्कता से दूर की जा सकती हैं, उनके लिए सरकारों को कठोर कानून बनाने की नौबत ही क्यों आनी चाहिए।