बांग्लादेश में पिछले कुछ समय से छात्र आंदोलन के दौरान सरकार के रुख और सुरक्षा बलों की कार्रवाई में कई सौ लोग मारे गए। इसके खिलाफ उभरे जन आक्रोश को देखते हुए इसकी आशंका पहले से बन रही थी कि वहां अब कुछ भी हो सकता है। सच यह है कि पुलिस और सुरक्षा बलों की सख्त कार्रवाइयों की वजह से ही प्रदर्शनकारियों के भीतर गुस्सा इस हद तक भड़क गया था कि भीड़ ने प्रधानमंत्री आवास तक पर कब्जा कर लिया और सेना को हालात संभालने का आश्वासन देना पड़ा।
हिंसा और अराजकता किसी भी समस्या का समाधान नहीं है
लगातार बिगड़ते हालात के बीच मजबूरन शेख हसीना को देश छोड़ना पड़ा। निश्चित रूप से हिंसा और अराजकता किसी भी समस्या का समाधान नहीं है, मगर शेख हसीना सरकार के रवैये से साफ था कि जनता के बीच बढ़ते असंतोष से निपटने को लेकर उसमें दूरदर्शिता नहीं थी और लगातार ऐसे फैसले लिए जा रहे थे, जो सरकारी तानाशाही के सूचक थे। ऐसे में जन आक्रोश के कारण समझे जा सकते हैं।
आरक्षण के मसले पर उभरे छात्र आंदोलन को बांग्लादेश के मौजूदा हालात का एक तात्कालिक कारण जरूर माना जा सकता है, मगर इसकी पृष्ठभूमि लंबे समय से बन रही थी। शेख हसीना 2009 से लगातार सत्ता में कायम हैं और पिछला चुनाव उन्होंने विपक्षी दलों के बहिष्कार के बीच जीता। इसके अलावा, उन पर सरकारी संस्थाओं के दुरुपयोग और सत्ता की ताकत से विरोध का दमन करने और विपक्षी कार्यकर्ताओं की हत्या कराने तक के आरोप लगते रहे हैं।
जाहिर है, लोकतंत्र के खिलाफ उनकी सरकार के रुख पर आम जनता के बीच फैले आक्रोश की ठोस वजहें रहीं। मगर प्रदर्शनकारियों के हिंसक होने और प्रधानमंत्री आवास तक पर धावा बोलने की घटना दक्षिण एशिया में सत्ता के खिलाफ आम लोगों के अराजक हो जाने की बढ़ती प्रवृत्ति को ही दर्शाता है। इससे पहले श्रीलंका में सरकार की मनमानी और दमन के विरुद्ध लोगों ने राष्ट्रपति भवन पर भी हमला कर दिया था। यह प्रवृत्ति चिंताजनक है, लेकिन सवाल है कि जनहित के सवालों की अनदेखी की सीमा क्या हो, जहां आम लोगों का सब्र न टूटे! लोकतंत्र का विकल्प सैन्य शासन कभी नहीं हो सकता।