राज्यसभा के ताजा चुनाव में, खासकर उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में, जिस तरह विधायकों के दल की सीमा लांघ कर मतदान करने की खबरें आईं, उससे एक बार फिर राजनेताओं की दलगत निष्ठा और दलबदल कानून की प्रासंगिकता पर सवाल गहरे हुए हैं। हालांकि इससे विपक्षी गठबंधन के भविष्य को लेकर भी अटकलबाजियों को बल मिला है।

बताया जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के कुछ विधायकों ने भाजपा के प्रत्याशी को मतदान किया, तो कुछ उसके समर्थन में मतदान से अनुपस्थित रहे। हिमाचल प्रदेश में भी कांग्रेस के कुछ विधायकों के भाजपा प्रत्याशी के पक्ष में मतदान करने के दावे किए जा रहे हैं। दोनों जगह विधायकों के इस तरह दगा करने के पीछे मुख्य वजह पार्टी आलाकमान से नाराजगी बताई जा रही है।

उत्तर प्रदेश में तो समाजवादी पार्टी प्रमुख के सबसे भरोसेमंद और पार्टी के मुख्य सचेतक ही बाड़बंदी तोड़ कर भाजपा के पाले में चले गए। कुछ दिनों पहले ही उत्तर प्रदेश में सपा और कांग्रेस ने मिल कर लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया है। मगर राज्यसभा चुनाव में इस तरह सपा विधायकों के मतभेद उभरने और एक तरह से खुल्लमखुल्ला बगावत से लोकसभा चुनाव में पार्टी पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों के आकलन गलत नहीं कहे जा सकते।

हिमाचल प्रदेश विधानसभा में कांग्रेस की स्थिति मजबूत है, भाजपा और उसकी सीटों का अंतर भी काफी है, इसलिए वहां कोई खतरा नहीं माना जा रहा था। मगर हकीकत यह भी है कि वहां शक्ति के कई केंद्र बन चुके हैं। मगर उत्तर प्रदेश में विधायकों का असंतोष किसी पद को लेकर नहीं, बल्कि पार्टी अध्यक्ष के व्यवहार से उपजा अधिक जान पड़ता है।

जैसा कि कुछ विधायकों ने जाहिर भी किया कि सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव का रुक्ष व्यवहार उन्हें खटकता है। उनके सबसे करीबी माने जाने वाले और पार्टी के मुख्य सचेतक ने पत्र लिख कर राज्यसभा चुनाव में अपनी जिम्मेदारी से मुक्ति की प्रार्थना की थी। बताया जा रहा है कि वे भाजपा में शामिल होने वाले हैं। राजनीतिक दलों के संचालन में मुखिया का व्यवहार बहुत मायने रखता है। अगर अखिलेश यादव अपने नेताओं और साथी संगठनों को साथ लेकर चल पाने में असमर्थ साबित हो रहे हैं, तो यह उनकी पार्टी के लिए अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता।

हालांकि राज्यसभा चुनाव में दलीय बाडबंदी को धता बताते हुए दूसरे दल के प्रत्याशी के पक्ष में मतदान करना कोई नई बात नहीं है। कई विधायक दूसरे दल के प्रत्याशी को इसलिए भी मतदान कर देते हैं कि उससे उनके अच्छे संबंध होते हैं। हिमाचल प्रदेश में यह गणित भी काम आया। मगर इस तरह राजनेताओं की निष्ठा तो प्रश्नांकित होती ही है।

न केवल पार्टी के प्रति, बल्कि उन मतदाताओं के प्रति भी, जिनके मतदान से उन्होंने विजय हासिल की है। इसी प्रवृत्ति पर रोक लगाने के मकसद से दलबदल कानून बना था, मगर उसकी काट अक्सर निकाल ली जाती है। महाराष्ट्र और गोवा इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं, जहां दूसरी पार्टी से चुनाव जीत कर आए विधायक उन्हीं दलों से हाथ मिला कर सरकार में शामिल हो गए, जिसके खिलाफ चुनाव लड़े थे। ऐसे मामलों में न तो पार्टियां कुछ कर पाती हैं और न चुनाव आयोग कोई ठोस रास्ता निकाल पाता है। इसलिए दलबदल कानून को नए सिरे से प्रभावशाली बनाने की अपेक्षा स्वाभाविक है।