संसद कानून और नीति निर्माण करने वाली देश की सर्वोच्च संस्था है, जो जनता का प्रतिनिधित्व करती है। देश की दिशा एवं दशा तय करने में इसकी अहम भूमिका होती है। यह सरकार के कामकाज की निगरानी करने और राष्ट्रीय मुद्दों पर चर्चा कर समाधान तलाशने का विशिष्ट मंच है। इसे लोकतांत्रिक व्यवस्था की रीढ़ कहा जाता है, जहां जनता की संप्रभुता को अभिव्यक्ति मिलती है। जन प्रतिनिधियों से उम्मीद की जाती है कि वे आम लोगों से जुड़े मसलों को संसद में उठाकर नीति निर्माण में उनकी भूमिका सुनिश्चित करेंगे।

मगर, संसद के मानसून सत्र के कामकाज पर गौर करें तो इन उम्मीदों पर सियासत के बादल मंडराते नजर आते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जन प्रतिनिधियों के लिए दलगत राजनीति जन सरोकार से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। संसद के अंदर और बाहर सत्तापक्ष एवं विपक्ष के बीच आरोप-प्रत्यारोप के शोरगुल में असल मुद्दे गौण हो जाते हैं। इससे न केवल संसद का बहुमूल्य समय यों ही जाया हो जाता है, बल्कि सार्वजनिक धन की भी बर्बादी होती है।

दोनों सदनों में कुल 15 विधेयक पारित किए गए

संसद के मानसून सत्र के दौरान लोकसभा में महज 31 फीसद और राज्यसभा में 39 फीसद कामकाज हुआ। सत्र के दौरान कामकाज के लिए 120 घंटे उपलब्ध थे, मगर इस दौरान लोकसभा में केवल 37 घंटे और राज्यसभा में 41 घंटे 15 मिनट कामकाज हो पाया। दोनों सदनों में कुल 15 विधेयक पारित किए गए और तीन विधेयकों को संसद की संयुक्त समिति के पास विचार के लिए भेजा गया। सत्र के दौरान ‘आपरेशन सिंदूर’ को लेकर दोनों सदनों में विशेष चर्चा हुई, जिसकी मांग विपक्ष ने उठाई थी।

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मगर, बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआइआर) का मुद्दा दोनों सदनों में हंगामे और गतिरोध की प्रमुख वजह बना रहा। सत्तापक्ष का तर्क था कि मामला न्यायालय में विचाराधीन है और इस पर सदन में चर्चा नहीं हो सकती। सवाल है कि क्या सदन में हंगामे से कुछ हासिल हो पाया? इसके विपरीत इस वजह से दोनों सदनों में एक भी दिन प्रश्नकाल एवं शून्यकाल सामान्य तरीके से नहीं चल पाया और सत्र के दौरान गैर सरकारी कामकाज भी नहीं हो सका। यानी, मानसून सत्र के कामकाज की सूची में शामिल जन सरोकार से जुड़े कई मुद्दे बिना चर्चा और जवाब के ही रह गए।

इसमें दोराय नहीं कि संसद सत्र नियमित रूप से चलाने का दायित्व सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों का है। लोकतंत्र में किसी भी मुद्दे पर विरोध दर्ज करना विपक्ष की भूमिका का एक हिस्सा है और सत्तापक्ष से उम्मीद की जाती है कि वह विपक्ष की आपत्तियों का निराकरण करे। मगर संसद में सार्थक और तर्कपूर्ण बहस करने के बजाय हंगामे से गतिरोध बनाए रखने से अंतत: नुकसान देश की जनता का होता है।

सियासी दलों और उनके जनप्रतिनिधियों को इस बात पर गंभीरता और गहराई से विचार करना चाहिए कि संसद का बहुमूल्य समय बर्बाद न हो। जन प्रतिनिधियों की यह नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वे उस जन सरोकार को प्राथमिकता दें, जिसके लिए उन्हें चुना गया है। एक निर्दलीय सांसद ने तो संसद परिसर में प्रदर्शन कर यह मांग भी उठाई है कि सदन में हंगामे की वजह से होने वाले आर्थिक नुकसान की भरपाई सांसदों के वेतन से की जानी चाहिए। सहमति और असहमति होना लोकतंत्र की स्वाभाविक प्रक्रिया है, लेकिन सामूहिक तौर पर प्रयास यही होना चाहिए कि सदन नियमित रूप से चले, ताकि जनकल्याण के लिए प्रभावी नीतियों का निर्माण हो सके।