पाकिस्तान विगत तीन दशकों से भी अधिक समय से कर्ज के नाम पर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और अन्य वैश्विक वित्तीय संस्थाओं से अरबों रुपए की राशि ले चुका है। बावजूद इसके न तो इस उसकी सूरत बदली न सीरत। आखिर इतनी बड़ी राशि कहां जाती है, यह किसी को नहीं मालूम। दूसरी ओर, आतंकवाद जैसी वैश्विक समस्या और उसके वित्त पोषण को लेकर उसका रवैया हमेशा ही संदिग्ध रहा है। विडंबना यह है कि जिस समय पहलगाम में पर्यटकों पर आतंकी हमले को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच टकराव की स्थिति बनी थी, वैसे समय में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने पाकिस्तान को करीब बारह हजार करोड़ रुपए का नया ऋण दे दिया।
पाकिस्तान को लेकर भारत की चिंता स्वाभाविक है
इस नाजुक समय में आइएमएफ के इस फैसले पर भारत ने स्वाभाविक ही चिंता जताते हुए कहा कि इसका इस्तेमाल पाकिस्तान सीमा पार आतंकवाद फैलाने के लिए करता है। पाकिस्तान में कृषि से लेकर अर्थव्यवस्था तक चौपट हो चुकी है। विकास की रोशनी दिखाई नहीं देती। एशियाई विकास बैंक और विश्व बैंक से भी कर्ज लेने के बावजूद पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था सुस्त है। तब मुद्रा कोष को क्यों नहीं यह सवाल करना चाहिए कि उसका दिया पैसा आखिर किस मद में जाता है?
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यह जगजाहिर है कि पाकिस्तान विकास की राह पर चलने के बजाय अपना सैन्य खर्च लगातार बढ़ा रहा है। वहीं उसने सीमापार आतंकवाद फैलाने और अपने यहां आतंकवादियों को पालने-पोसने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। ऐसा लगता है कि पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से मिलने वाले कर्ज की कोई कसौटी नहीं है। इसकी क्या गारंटी है कि मुद्रा कोष से मिली राशि का उपयोग पाकिस्तान अपनी सैन्य ताकत बढ़ाने और आतंकवादियों को संरक्षण देने में नहीं करेगा।
हैरत की बात है कि पाकिस्तान को न तो अपने नागरिकों के स्वास्थ्य की चिंता है और न ही बच्चों की शिक्षा की फिक्र। उस पर करीब दस लाख करोड़ से अधिक का कर्ज है जो उसकी जीडीपी का बयालीस फीसद है। यह छिपा नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मिले ऋण को खर्च करने के मामले में उसने कभी पारदर्शिता नहीं बरती। इसलिए वैश्विक वित्तीय संस्थानों को पाकिस्तान को कर्ज देते समय वैश्विक मूल्यों का खयाल रखना चाहिए।
