हमारे देश में सांप्रदायिक दंगों के मामलों में न्याय मिलने का रिकार्ड अच्छा नहीं रहा है। अगर आरोपियों में रसूख वाले राजनीतिक भी शामिल हों, तब तो न्याय मिल पाना और भी मुश्किल हो जाता है। यह कड़वी हकीकत जांच के स्तर पर भी प्रतिबिंबित होती रही है। कई मामलों में ठीक से जांच ही नहीं होती, तो कुछ मामलों में जांच दबा दी जाती है या सिफारिशों पर कार्रवाई नहीं होती, जैसे श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट। कुछ जांच ऐसी भी होती हैं जिनमें दो-चार छोटी मछलियों पर कार्रवाई की सिफारिश करके, बड़ी मछलियों को छोड़ दिया जाता है। मुजफ्फरनगर दंगों की जांच रिपोर्ट का हासिल क्या यही है? सितंबर 2013 में हुए इन दंगों में साठ लोग मारे गए। सैकड़ों लोग घायल हुए। हजारों परिवारों को जान बचाने की खातिर घरबार छोड़ कर भागना पड़ा।

दंगों की आग शामली, सहारनपुर, बागपत, मेरठ जैसे मुजफ्फरनगर के आसपास के जिलों में भी फैल गई थी। इन दंगों की वजहों की पड़ताल के लिए राज्य सरकार ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त जज विष्णु सहाय की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया था। अब आयोग ने अपनी रिपोर्ट दे दी है। पर क्या यह रिपोर्ट पीड़ितों में इंसाफ की कोई आस जगा पाएगी? आयोग ने उच्चस्तर पर किसी को भी जवाबदेह नहीं ठहराया है, न राज्य सरकार को, न उन राजनीतिकों को, जिन पर भड़काऊ भाषण देने तथा सोशल मीडिया पर गुमराह करने वाली सामग्री डाल कर दंगे का माहौल बनाने का आरोप रहा है। इससे समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी, दोनों ने राहत की सांस ली होगी। आयोग के मुताबिक सारा दोष केवल स्थानीय प्रशासन और खुफिया तंत्र की लापरवाही का था। अलबत्ता आयोग ने मीडिया के व्यवहार की भी आलोचना की है। उसका कहना है कि अतिरंजित खबरें छापी और दिखाई गर्इं, जिनसे बहुत उत्तेजना पैदा हुई और हिंसा भड़की।

यह सही है कि स्थानीय प्रशासन ने दंगों पर काबू पाने में कोताही बरती होगी, मीडिया के एक हिस्से ने गैर-जिम्मेदारी का परिचय दिया होगा, और इस सब के लिए उनकी जवाबदेही बनती है। पर राज्य सरकार अपना दामन कैसे बचा सकती है, जब वैसे विकट हालात में सारे अहम फैसले शीर्ष स्तर से किए गए हों? इसी तरह, भाजपा क्या संगीत सोम और बसपा क्या कादिर राना जैसे अपने लोगों के आगलगाऊ भाषणों से पल्ला झाड़ सकती हैं? सहाय आयोग ने भले ताकतवर लोगों को बख्श दिया हो, पर एक बुनियादी सच्चाई जरूर रेखांकित की है, वह यह कि ये दंगे सत्ताईस अगस्त की एक घटना के बाद सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की सुनियोजित कोशिशों के फलस्वरूप हुए थे। पर अकेले मुजफ्फरनगर नहीं, और भी बहुत-से दंगों का यही सच रहा है। सौहार्द, भयमुक्त समाज, कानून का शासन जैसे दावे और सिद्धांत कहां चले जाते हैं!

भाजपा दंगों का सारा ठीकरा दूसरों के सिर फोड़ती रही, पर दंगों के आरोपी अपने दो राजनीतिकों का अभिनंदन करने में उसे कतई संकोच नहीं हुआ। राज्य सरकार दंगों के बाद भी अपने कर्तव्य के प्रति नहीं चेती, जिसका उदाहरण पीड़ितों के प्रति उसका सलूक था। राहत शिविरों में हर तरह की असुविधा और तकलीफ लोग झेलते रहे, ठंड से कई बच्चों की मौत भी हो गई, तब भी समाजवादी पार्टी के नेतागण सैफई के जलसे में डूबे थे। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने तो एक दफा यह तक कह दिया कि राहत-शिविरों में दंगा-पीड़ित नहीं, षड्यंत्रकारी रह रहे हैं। स्वाभाविक ही उनके इस बयान पर खासा विवाद हुआ। अगर हमारे राजनीतिक दल लोगों की जान-माल की सुरक्षा के प्रति भी संवेदनशील नहीं हैं, तो उनसे और क्या उम्मीद की जाए!