दिल्ली के प्रशासनिक नियंत्रण और अधिकारों की बाबत हाइकोर्ट का फैसला ऐतिहासिक और दूरगामी महत्त्व का है। अलबत्ता यह हैरानी का विषय नहीं है। हाइकोर्ट ने दिल्ली के केंद्रशासित प्रदेश होने के तथ्य की ही पुष्टि की है, और इसी आधार पर, संबंधित संवैधानिक प्रावधानों का हवाला देते हुए कहा है कि दिल्ली में उपराज्यपाल ही प्रशासनिक प्रमुख हैं और वे मुख्यमंत्री या उनकी मंत्रिपरिषद की सलाह मानने को बाध्य नहीं हैं। यही नहीं, हाइकोर्ट ने यह तक कहा है कि दिल्ली सरकार को आदेश पारित करने के लिए उन मामलों में भी उपराज्यपाल की सहमति लेनी होगी, जो विधानसभा के तहत आते हैं। जाहिर है, हाइकोर्ट का फैसला मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के लिए बहुत बड़ा झटका है।

फैसले से आहत उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने कहा है कि दिल्ली सरकार इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करेगी। सर्वोच्च अदालत का इस मामले में क्या रुख होगा, यह तो वक्त बताएगा, पर फिलहाल आप सरकार की हालत बहुत नाजुक हो गई है। पिछले साल के शुरू में आम आदमी पार्टी के सत्ता में आने के बाद से मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उपराज्यपाल नजीब जंग के बीच अधिकारों को लेकर रह-रह कर तकरार चलती रही है। इस सिलसिले में कई बार तीखे विवाद उठे, कभी अफसरों की नियुक्तियों और तबादलों को लेकर, कभी भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो पर नियंत्रण को लेकर तो कभी विधानसभा से पारित विधेयकों की मंजूरी को लेकर। हाइकोर्ट के फैसले ने इन सभी मामलों में उपराज्यपाल की मंजूरी और संस्तुति को अनिवार्य बताया है। उपराज्यपाल केंद्रीय गृह मंत्रालय की हिदायत से काम करते हैं। हाइकोर्ट की दी हुई व्यवस्था का व्यावहारिक मतलब यही निकलता है कि दिल्ली में अफसरों की तैनाती, तबादले और पदोन्नति से लेकर विधानसभा से पारित विधेयकों के कानून बनने तक, सारे अहम फैसलों में केंद्र की मर्जी चलेगी, दिल्ली सरकार की नहीं।

यह सही है कि कई बार विवाद के लिए केजरीवाल का रवैया ही जिम्मेदार रहा, तय प्रक्रियाओं का पालन किए बिना ही उन्होंने उपराज्यपाल पर बाधक बनने और केंद्र पर काम न करने देने का आरोप मढ़ दिया। लेकिन यह भी सही है कि विवादों के सिलसिले की एक बड़ी वजह यह भी रही है कि केंद्र में और दिल्ली में अलग-अलग पार्टियों की सरकारें हैं। मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद की लाचारी, लोकतांत्रिक तकाजों के लिहाज से कोई वांछनीय स्थिति नहीं कही जा सकती।

दिल्ली हमेशा केंद्रशासित रही है, पर उसकी अपनी विधानसभा हो जाने के बाद भी क्या उसकी स्थिति चंडीगढ़ और लक्षद्वीप से भिन्न नहीं है? इस पेचीदा प्रश्न पर, दिल्ली सरकार की अपील के बाद, सबको सर्वोच्च अदालत के फैसले का इंतजार रहेगा। पर आखिरकार यह मसला राजनीतिक समाधान की मांग करता है। अगर दिल्ली से जुड़े हर मामले में राज्य सरकार के हाथ बंधे रहेंगे, तो यहां विधानसभा की मौजूदगी और चुनाव होने तथा जनादेश का क्या मतलब है? दूसरे, अगर दिल्ली सरकार को कोई निर्णायक या महत्त्वपूर्ण अधिकार ही नहीं हैं, तो किसी भी मामले में उसकी जवाबदेही कैसे तय होगी? फिर तो जवाबदेही उपराज्यपाल और प्रकारांतर से केंद्र की होगी, या होनी चाहिए! दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग भारतीय जनता पार्टी ने ही शुरू की थी। कई चुनावों में यह उसका मुख्य मुद््दा रहा। इसके पीछे दिल्ली सरकार को अपने वादे पूरे करने में सक्षम बनाने तथा जन आकांक्षाओं और लोकतांत्रिक तकाजों का ही तर्क रहा होगा। अब जबकि दिल्ली के मतदाताओं की तादाद और अधिक हो चुकी है, क्या वह तर्क बेमानी हो गया है!