भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की ताजा बैठक ऐसे वक्त हुई जब पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की रणभेरी बज चुकी है। इसलिए दो दिन चली इस बैठक में चुनावी चिंता छाई रही। यों इन पांच राज्यों में असम को छोड़ कर बाकी जगह भाजपा अब भी हाशिये की ही पार्टी है, इसलिए उसे पाने या खोने को बहुत ज्यादा नहीं है। पर चूंकि दक्षिण में अधिकांश जगह और पूर्वोत्तर में उसकी मौजूदगी हमेशा कम रही है, और अब वह अपने भौगोलिक विस्तार के लिए बहुत बेचैन है, इसलिए इन पांच राज्यों के चुनाव उसके लिए बहुत अहम हो गए हैं। जेएनयू विवाद के बाद हुई इस बैठक में राष्ट्रवाद भी एक प्रमुख विषय रहा।

पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के उद््घाटन भाषण से लेकर प्रधानमंत्री के समापन भाषण तक, पार्टी के सभी नेताओं के भाषणों में राष्ट्रवाद के मसले को और जोर-शोर से उठाने के संकेत मिले। दरअसल, जेएनयू प्रकरण में आरोपियों को जमानत मिलने और जांच में यह तथ्य सामने आने के बाद कि आपत्तिजनक नारे लगाने वाले कुछ बाहरी लोग थे, विवाद ठंडा पड़ रहा था। लेकिन ओवैसी के एक बयान ने माहौल को फिर से गरमा दिया। एक भावनात्मक मुद्दे को भुनाने की गुंजाइश भाजपा क्यों छोड़ना चाहेगी? लेकिन राष्ट्रवाद को महज प्रतीकवाद बना देने की कोशिशों के चलते बौद्धिकों के एक खासे वर्ग में भाजपा को आलोचना भी झेलनी पड़ी है।

शुरू में पार्टी ने इसकी तनिक परवाह न की हो, पर अब लगता है कि उसे इसकी थोड़ी-बहुत चिंता सता रही है। लिहाजा, प्रधानमंत्री समेत पार्टी के कई नेताओं को यह कहने की जरूरत महसूस हुई कि राष्ट्रवाद और लोकतंत्र का सह-अस्तित्व हो सकता है। यह विडंबना ही है कि जिस समय पार्टी जोर-शोर से राष्ट्रवाद का राग अलाप रही है, पंजाब तथा हरियाणा के झगड़े को सुलझाने में उसे पसीना आ रहा है, जबकि वह केंद्र में भी सत्ता में है और इन दोनों राज्यों में भी।

पार्टी की एक चिंता यह भी नजर आती है कि दलितों में उसकी पैठ कैसे बढ़े। लोकसभा चुनाव में रामदास अठावले, रामविलास पासवान और उदित राज जैसे चेहरों ने पार्टी की एक परंपरागत कमी पूरी की थी। लेकिन दलितों के बीच आधार बढ़ाने की भाजपा की कोशिशों को हाल में रोहित वेमुला प्रकरण से गहरा झटका लगा है। इस नुकसान की भरपाई में वह जुट गई है, जिसके संकेत सोमवार को प्रधानमंत्री के हाथों आंबेडकर नेशनल मेमोरियल के शिलान्यास में देखे जा सकते हैं। पर क्या इस तरह के प्रतीकात्मक काम पर्याप्त होंगे?

वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व-काल के प्रथम दो साल में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की छह बैठकें हुई थीं, जबकि मोदी के दो साल के कार्यकाल में केवल तीन बैठकें हुई हैं। क्या इसका अर्थ यह है कि तब की तुलना में पार्टी में आपसी संवाद कम हुआ है? वैसा हुआ हो या नहीं, नेताओं और मंत्रियों की गैर-जरूरी और कई बार आपत्तिजनक बयानबाजी जरूर बढ़ी है। इससे सरकार की छवि पर नकारात्मक असर पड़ता है। भाजपा को मिली ऐतिहासिक जीत के पीछे पार्टी और मोदी से बांधी गई उम्मीदें थीं। इसलिए मोदी ने यह दोहराना जरूरी समझा कि उनकी सरकार का एजेंडा विकास और सिर्फ विकास है। और कार्यकर्ताओं से अपील की कि वे इसे हमेशा याद रखें। पर क्या व्यवहार में ऐसा होता है? जब कई वरिष्ठ लोग खुद ध्यान बंटाने वाली बातों में लग जाते हैं, तो कार्यकर्ताओं से क्या उम्मीद की जाए!