उन्नीस सौ चौरासी में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए सिख- विरोधी दंगों के एक सौ छियासी मामलों की जांच के लिए एसआइटी यानी विशेष जांच दल गठित करने का सर्वोच्च न्यायालय का फैसला उन दंगों के पीड़ितों के लिए एक राहत-भरी खबर है। साथ ही, इससे पहले हुई जांचों की तमाम कवायद पर सवालिया निशान भी। हमारे देश में दंगों के मामलों में न्याय मिल पाने का रिकार्ड अच्छा नहीं रहा है। खासकर जिन मामलों में सत्तापक्ष से जुड़े लोगों पर संलिप्तता के आरोप रहे हों, उनमें इंसाफ की डगर और भी कठिन रही है। एसआइटी गठित करने का सर्वोच्च अदालत का फैसला उसकी तरफ से गठित एक समिति की सिफारिश पर आया है। बीते साल दिसंबर में सर्वोच्च न्यायालय के दो पूर्व जजों की इस समिति का गठन करते हुए अदालत ने दो सौ इकतालीस मामलों की पड़ताल करने को कहा था, जिनकी जांच सरकार द्वारा बनाई गई एसआइटी ने बंद कर दी थी। जिन एक सौ छियासी मामलों की फिर से यानी सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित होने वाली एसआइटी जांच करेगी, वे इन्हीं दो सौ इकतालीस मामलों में शामिल थे।
सरकारी एसआइटी गृह मंत्रालय द्वारा बनाई गई न्यायमूर्ति जीपी माथुर समिति की सिफारिश के बाद फरवरी, 2015 में गठित हुई थी। लेकिन इस एसआइटी का हासिल क्या रहा, यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित छानबीन समिति की पड़ताल से सामने आ गया। समिति ने पाया कि दो सौ इकतालीस में से एक सौ छियासी मामलों को बिना जांच के ही बंद कर दिया गया। इसीलिए समिति ने इन्हें फिर से खोलने यानी फिर से इनकी जांच करने की सिफारिश की। लिहाजा, सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले का तर्क जाहिर है। लेकिन विडंबना यह है कि सरकार ने जो एसआइटी गठित की थी, वह भी न्यायालय के निर्देश का ही नतीजा थी। फिर भी उससे निराशा ही हाथ लगी। नई बनने वाली समिति शायद इसी मायने में अलग होगी कि वह न्यायालय की निगरानी में काम करेगी। पीड़ितों में उम्मीद जगाने वाला शायद यही सबसे खास पहलू होगा। वरना कई समितियां और आयोग उन्नीस सौ चौरासी के सिख-विरोधी दंगों की जांच कर चुके हैं। पर चौंतीस साल बाद भी ज्यादातर आरोपियों को सजा नहीं मिल पाई है। उन दंगों में तीन हजार तीन सौ से अधिक लोग मारे गए थे। अकेले दिल्ली में ही ढाई हजार से ज्यादा लोगों की हत्या हुई थी। तब से सिखों का समर्थन पाने के लिए समय-समय पर जांच और मुआवजे की घोषणाएं होती रहीं, पर इंसाफ का तकाजा कभी पूरा नहीं हो सका।
सर्वोच्च अदालत के ताजा फैसले के फलस्वरूप उच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में बनने वाली समिति में एक सेवारत आइपीएस अफसर और एक ऐसे पूर्व आइपीएस अफसर को शामिल किया जाएगा जो सेवानिवृत्ति के समय पुलिस उपमहानिरीक्षक या उससे ऊपर के पद पर रहा हो। अदालत ने एसआइटी के लिए सरकार से नाम मांगे हैं। सब कुछ ठीक है, पर यह स्वागत-योग्य हस्तक्षेप बहुत देर से हुआ है। कोई भी यह अनुमान लगा सकता है कि इतने लंबे अरसे बाद जांच कितनी कठिन है, पर्याप्त सबूत जुटाने में कितनी मुश्किल पेश आएगी, जबकि पीड़ितों और गवाहों में से बहुत-से अब इस दुनिया में नहीं हैं। अलबत्ता पहले हुई जांचों में पर्याप्त साक्ष्य होने के बावजूद जिन मामलों को तार्किक परिणति तक नहीं पहुंचाया गया उनमें जरूर फर्क पड़ सकता है।