लेकिन इस मसले पर अब तक संबंधित पक्षों की ओर से ऐसी पहलकदमी नहीं हो सकी, ताकि समाधान को कोई ठोस शक्ल दी जा सके, अधिकारों का स्पष्ट बंटवारा हो। यही वजह है कि कुछ अंतराल के बाद कोई ऐसा बिंदु सामने आ जाता है, जिस पर दिल्ली और केंद्र सरकार के बीच खींचतान के तेवर तीखे दिखने लगते हैं।

बुधवार को केंद्र सरकार ने जिस तरह उपराज्यपाल को ज्यादा शक्तियां देने के एक प्रस्ताव को मंजूरी दी है, उससे साफ है कि दिल्ली सरकार के साथ एक बार फिर टकराव की स्थिति बनेगी। हालांकि इससे इतर भी कई मसलों पर अधिकार और शक्तियों को लेकर विवाद उभरते रहे हैं। मगर केंद्रीय मंत्रिमंडल ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली अधिनियम में संशोधन के जरिए जिस नई व्यवस्था को मंजूरी दी है, उसके मुताबिक अब दिल्ली सरकार को विधायी प्रस्ताव उपराज्यपाल के पास कम से कम पंद्रह दिन पहले और प्रशासनिक प्रस्ताव सात दिन पहले स्वीकृति के लिए पहुंचाने होंगे।

गौरतलब है कि राज्य का दर्जा होने के बावजूद केंद्र शासित प्रदेश और खासतौर पर राष्ट्रीय राजधानी होने के नाते दिल्ली के उपराज्यपाल को कई अधिकार मिले हुए हैं। लेकिन दिल्ली सरकार अक्सर अपने स्तर पर किए जाने वाले कामकाज में सहजता नहीं रह पाने और केंद्र की ओर से अड़चन लगाने के आरोपों को लेकर अपना विरोध जताती रही है।

दोनों पक्षों के बीच अधिकारों के सवाल पर टकराव के मसले पर करीब दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला दिया था, लेकिन उसके बाद भी टकराव के बिंदुओं का समाधान नहीं हो सका। जाहिर है, ऐसे में केंद्र की ताजा कवायद पर दिल्ली सरकार की ओर से सवाल उठना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है।

दिल्ली के उपमुख्यमंत्री ने आरोप लगाया है कि इस संशोधन के जरिए दिल्ली में चुनी हुई सरकार के अधिकार छीन कर उपराज्यपाल को देने का काम किया गया है और अब दिल्ली सरकार के पास फैसले लेने की शक्ति नहीं होगी। सवाल है कि अगर दिल्ली सरकार का यह आरोप सही है कि केंद्र का यह फैसला लोकतंत्र और संविधान के खिलाफ किया गया है तो यह चिंता की बात है! मगर क्या केंद्रीय मंत्रिमंडल इस संशोधन के जरिए सचमुच दिल्ली सरकार के अधिकारों को सीमित करना चाहती है?

निश्चित तौर पर दिल्ली में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत एक चुनी हुई सरकार है और अपनी सीमा में सरकार को काम करने का अधिकार होना चाहिए। लेकिन इसके साथ ही यह भी तथ्य है कि दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी भी है और इस नाते केंद्र को संभवत: नीतिगत स्तर पर कई मसलों का ध्यान रखने की जरूरत महसूस होती होगी।

माना जा रहा है कि ताजा संशोधन प्रशासन को बेहतर करने के साथ-साथ दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच टकराव के हालात कम करने के लिए किए जा रहे हैं। लेकिन विधायी और प्रशासनिक प्रस्ताव पर आगे कदम बढ़ाने के लिए उसे उपराज्यपाल के पास भेजने की जो शर्त रखी गई है!

क्या उससे आने वाले दिनों में केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच खींचतान और टकराव की स्थितियां और नहीं बढ़ेंगी? नौकरशाही पर नियंत्रण सहित दूसरे महत्त्वपूर्ण विषयों पर दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के अधिकारों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाना इसलिए भी जरूरी है कि दिल्ली को राज्य का दर्जा जरूर प्राप्त है, मगर यह देश की राजधानी भी है। यहां विधायी और प्रशासनिक कार्यों में अगर कोई टकराव या गतिरोध पैदा होता है तो इससे किसी का हित नहीं होगा।