राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने सर्वसम्मति से नरेंद्र मोदी को अपने गठबंधन का नेता चुन लिया है। इसके साथ ही लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री के रूप में देश की बागडोर संभालने की दिशा में उन्होंने एक और कदम आगे बढ़ा दिया। दरअसल, इस बार के आम चुनाव में खंडित जनादेश मिला है। किसी भी राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत हासिल नहीं हो सका है। सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ने गठबंधन करके चुनाव लड़ा था। भाजपा की अगुआई वाले गठबंधन, राजग, को जरूरी बहुमत से कुछ अधिक सीटें प्राप्त हुई हैं, इसलिए वह सरकार बनाने का दावा पेश करने जा रहा है।

BJP का सहयोगियों के साथ व्यवहार बदल जाएगा

चूंकि भाजपा सबसे बड़ी पार्टी है, और उसके गठबंधन के पास अस्पष्ट बहुमत है, इसलिए सरकार बनाने का दावा वाजिब है। कांग्रेस की अगुआई वाले इंडिया गठबंधन ने सरकार बनाने के सवाल पर संकेत दिया है कि फिलहाल वे किसी जोड़-तोड़ में नहीं जुटेंगे और सही समय का इंतजार करेंगे। इससे पहले खबरें आई थीं कि नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू शायद सैद्धांतिक आधार पर राजग के साथ जाने से इनकार कर दें और इसका फायदा इंडिया उठा ले। लेकिन भाजपा की अगुआई वाले गठबंधन की सरकार बनने की राह स्पष्ट हो गई है। पर यह भी तय है कि इस बार भाजपा का गठबंधन के सहयोगियों के साथ वही व्यवहार नहीं रह पाएगा, जो पहले की दो सरकारों के समय देखा गया।

इस बार भाजपा को अकेले दम पर बहुमत हासिल नहीं है। उसे सरकार चलाने के लिए हर समय सहयोगी दलों पर निर्भर रहना पड़ेगा। पिछली दो सरकारों के समय भाजपा के पास स्पष्ट बहुमत था, इसलिए उसे इस बात की चिंता नहीं थी कि सहयोगी दल किसी मोड़ पर उसकी बांह मरोड़ सकते हैं। इस बार वैसी निश्चिंतता नहीं रहेगी। एक तनी हुई रस्सी पर संतुलन साधते हुए चलने जैसा होगा। जरा-सा भी असंतुलन खतरनाक साबित होगा। फिर, जिन दो दलों- तेलगु देसम पार्टी और जद (एकी) के पास सरकार चलाने के लिए निर्णायक सीटें हैं, उनके साथ संतुलन साधना सबसे अहम होगा। इन दोनों दलों के नेताओं यानी नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू के भाजपा के साथ सैद्धांतिक मतभेद पहले कई बार उजागर हो चुके हैं। वे बीच में भाजपा का साथ छोड़ कर अलग राह पकड़ चुके हैं। इसलिए उन्हें लेकर भरोसेमंद दावा कोई नहीं कर सकता। वे कब किस फैसले से नाराज हो जाएं, कहना मुश्किल है। ऐसे में भाजपा के लिए उनके साथ लगातार संतुलन साधते रहना होगा।

राजग की पिछली दो सरकारों के कामकाज के तरीके और फैसलों को लेकर अनेक आपत्तियां उठती रही हैं। नई सरकार में घटक दलों की बात सुनना जरूरी होगा। अपेक्षा की जाती है कि इस बार मंत्रिमंडल का गठन कुछ इस तरह से होगा कि उसमें घटक दलों की मांगों को समायोजित करना होगा। हर सहयोगी दल अपने समर्थन की बड़ी कीमत मांगेगा। उसमें अगर पदों और विभागों के बंटवारे में असंतुलन होगा, तो असंतोष भी उभरेगा और उसका असर सरकार के कामकाज पर नजर आने लगेगा। पिछली सरकारों के समय कई महत्त्वाकांक्षी योजनाओं की घोषणाएं की गई थीं, वे तभी लागू होंगी और गति पा सकेंगी, जब विभागों के बंटवारे में संतुलन होगा। फिर, हर सहयोगी दल की अपनी क्षेत्रीय प्राथमिकताएं भी हैं, वे उन्हें ऊपर रखना चाहेंगे, इसलिए नई सरकार से हर स्तर पर संतुलन साधने की दरकार होगी।