मुठभेड़ के नाम पर पुलिस की मनमानी जिस तरह देश में बढ़ी है, वह चिंताजनक है। मानवाधिकार संगठन अदालतों का दरवाजा खटखटाते रहे हैं। पुलिस को भी कई बार फटकार लगाई जा चुकी है, लेकिन उसकी यह प्रवृत्ति खत्म नहीं हुई। आज भी वह जांच के नाम पर किसी को भी घर से उठा लेती है। ऐसी घटनाओं से नागरिकों का न केवल पुलिस पर से भरोसा उठता है, बल्कि उनमें असुरक्षा की भावना आ जाती है। ज्यादातर घटनाओं में पुलिस उचित कानूनी प्रक्रिया नहीं अपनाती।

ऐसे कई मामले सामने आए, जब नागरिकों को घरों से उठा कर पीटा गया या फिर उन्हें मारने के बाद मुठभेड़ की कहानी रच दी गई। जबकि कई घटनाएं पूरी तरह फर्जी मुठभेड़ भी होती हैं। इस तरह मानवाधिकारों का तो उल्लंघन होता ही है, वहीं पीड़ित को निष्पक्ष सुनवाई और सुरक्षा का अधिकार नहीं मिल पाता।

नोएडा पुलिस के मनमानी की कहानी हुई उजागर

ढाई साल पुराने मामले में नोएडा पुलिस की मनमानी उस समय उजागर हुई, जब बारह पुलिसकर्मियों पर पिछले दिनों प्राथमिकी दर्ज हुई। हैरत की बात है कि फरवरी में आए अदालती आदेश पर अप्रैल में अमल किया गया। इस मामले में सादी वर्दी और बिना नंबर वाली गाड़ियों में आए पुलिसकर्मियों ने एक शख्स को घर से उठा कर पीटा था, फिर दिल्ली में पढ़ रहे उसके बेटे को मुठभेड़ में जख्मी कर दिया था।

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नोएडा की इस घटना से पता चलता है कि पुलिस तंत्र में जवाबदेही का किस कदर अभाव है। ज्यादातर पुलिसकर्मियों को नहीं पता कि संविधान में नागरिकों को कौन-कौन से अधिकार प्राप्त हैं और कानूनी एवं न्यायिक प्रक्रिया का भी कोई महत्त्व है। दरअसल, कठोर कार्रवाई न होने से प्राय: पुलिसकर्मी बार-बार मनमानी करते हैं।

पीड़ित को इंसाफ दिलाना पुलिस की जिम्मेदारी

कायदे से किसी भी मुठभेड़ के बाद तत्काल स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच होनी चाहिए ताकि सच्चाई सामने आए और पीड़ित को इंसाफ मिल सके। नागरिकों के मानवाधिकार की रक्षा के लिए यह आवश्यक भी है। वहीं पुलिस तंत्र की जवाबदेही तय करने के साथ उसे संवेदनशील बनाने की भी जरूरत है। शीर्ष अदालत के दिशा-निर्देशों का ही अगर सख्ती से अनुपालन हो, तो पुलिसकर्मियों की मनमानी पर अंकुश लग सकता है। मगर जब कुछ पुलिसकर्मी ही आपराधिक शक्ल अख्तियार करने पर उतारू हों, तो वहां इंसाफ की उम्मीद का क्या होगा?