आखिरकार भाजपा ने साफ कर दिया है कि वह बिहार में किसी को मुख्यमंत्री पद के अपने उम्मीदवार के रूप में पेश नहीं करेगी। इसके बजाय पार्टी बिहार में विधानसभा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में विकास के एजेंडे पर लड़ेगी। पार्टी के इस फैसले से उसकी कमजोरी और चतुराई दोनों जाहिर हैं। बिहार में यों तो भाजपा के पास विधानसभा में विपक्ष के नेता सुशील कुमार मोदी और प्रदेश अध्यक्ष नंदकिशोर यादव से लेकर कई केंद्रीय मंत्रियों तक, मुख्यमंत्री पद के दावेदारों की कोई कमी नहीं है।
पर पार्टी किसी को मुख्यमंत्री पद के लिए अपना उम्मीदवार घोषित नहीं करना चाहती तो इसके कारण समझे जा सकते हैं। एक वजह तो यह धारणा हो सकती है कि बिहार में भाजपा के पास कोई इतना कद््दावर नेता नहीं है जो नीतीश कुमार के मुकाबले ठहर सके। दूसरी वजह यह आशंका रही होगी कि अगर किसी का नाम घोषित किया जाएगा, तो चुनाव से पहले ही पार्टी धड़ेबाजी में फंस जाएगी। फिर बिहार में, जहां चुनाव में जातिगत समीकरण सबसे ज्यादा भूमिका निभाते हैं, भाजपा को यह भी डर रहा होगा कि मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी का एलान करने से उसके कुछ समर्थक दूर छिटक सकते हैं।
एक और कारण दिल्ली का अनुभव हो सकता है। इस साल फरवरी में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में पार्टी ने जीत मिलने पर किरण बेदी को मुख्यमंत्री बनाने का एलान किया था। पर इसका उसे कोई फायदा नहीं हुआ, उलटे नुकसान झेलना पड़ा और सत्तर सदस्यीय विधानसभा में वह तीन सीटों पर जा सिमटी। दूसरी ओर, हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के विधानसभा चुनावों में भाजपा बगैर भावी मुख्यमंत्री का चेहरा पेश किए उतरी थी और इन राज्यों में उसे अपूर्व कामयाबी मिली।
इन आधारों पर देखें तो बिहार में भाजपा की रणनीति एकदम सुविचारित मालूम पड़ती है। मगर कहना मुश्किल है कि यह कारगर भी साबित होगी। महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के चुनाव जब हुए तब आम चुनाव बीते ज्यादा वक्त नहीं हुआ था और मोदी लहर कायम थी। पर दिल्ली का चुनाव आते-आते मोदी का जादू उतर चुका था।
मोदी की रैलियां बेअसर रहने के बाद ही भाजपा ने किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया था। इस तरकीब में निहित चालाकी छिपी नहीं रह सकी, जीत मिले तो श्रेय मोदी को, हार मिले तो ठीकरा बेदी पर। बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा को जीत मिली, तो तय है उसका सेहरा नरेंद्र मोदी के सिर बंधेगा। मगर हार की सूरत में क्या होगा?
मोदी की लोकप्रियता पर सवाल उठेंगे। यहां किरण बेदी की तरह कोई चेहरा नहीं होगा जिस पर हार की सारी तोहमत मढ़ी जा सके। मोदी स्टार प्रचारक जरूर होंगे, पर मतदाता जानते हैं कि यह विधानसभा चुनाव है जिसमें उन्हें मोदी और नीतीश के बीच नहीं, प्रदेश भाजपा और नीतीश के बीच चुनाव करना है।
भाजपा की बहुत सारी उम्मीद इस बात पर टिकी थी कि लालू और नीतीश एक नहीं हो पाएंगे। इसलिए पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के वोट बंट जाएंगे। लेकिन राजद और जनता दल (एकी) के गठबंधन और मुख्यमंत्री पद के लिए नीतीश कुमार के नाम पर लालू प्रसाद के राजी हो जाने से भाजपा की परेशानी बढ़ गई है। इसके अलावा, जरूरी नहीं कि नरेंद्र मोदी पर केंद्रित भाजपा का चुनाव अभियान पहले की तरह प्रभावी साबित हो।
भूमि अधिग्रहण अध्यादेश जारी होने के बाद से मोदी पर किसानों की अनदेखी करने और कंपनियों के हितों को बहुत तरजीह देने के आरोप लगते रहे हैं। ललित मोदी से जुड़े विवाद में भाजपा अध्यक्ष की सफाई और प्रधानमंत्री की चुप्पी ने साफ-सुथरी सरकार के दावे पर भी सवालिया निशान लगाया है। लिहाजा, मोदी के नाम पर बिहार का चुनाव लड़ने का भाजपा का निर्णय चतुराई भरा है तो जोखिम भरा भी।